चूप तो होने दो।
सवालों को...।
कौन देखेगाँ?
सुखते गालों को।
प्यास बड़ी है?
या पैसा बता।
बना के कोठी,
ना करना खता।
कोई दूआँ...
ना कोई दवा है।
महंगी हुई,
जिन्दगी की हवा है।
कहीं पेट में,
उपवास है।
कहीं रात बिकती,
बड़ी प्यास है।
कहीं रोता,
कचरें में माशुम।
कहीं फूट रहें है,
बेकारी के मशरूम।
कहीं विषपान,
कहीं अपमान।
कहीं शैतान।
कहाँ है भगवान।
कहीं सुखे,
कहीं भूखे।
कहीं भग फूटे,
क्यो हो रूठे।
क्या तोल-तोलकर,
मानवता भाप हुआ।
क्या इस कलियुग में,
मानव होना पाप हुआ।
कब तक बेरहम,
काठ के पुतले हम होंगे।
क्यो नहीं नव सूरज के,
नव उजले तो हम होंगे।
©पुखराज यादव