पहचान मेरा.............
वो गिराकर मुझे,
मेरा पहचान पुछता है।
कह कर ही वो,
मेरा मुझसे नाम पुछता है।
बाट डाले उसने सबको,
अब एकता का मुकाम पुछता है।
वो गिराकर मुझे,
मेरा पहचान पुछता है।
हम से हांे मैं,
अब भीड का पैगाम पुछता है।
चले थे तो सब,
इंसान बनने को....
चले थे तो सब,
इंसान बनने को।
इंसानियत को षर्मसार कर,
इंसानियत की पहचान पुछता है।
मुझे सुपूर्द-ए-खाक कर दो,
मै तो हू ही नाषवर।
सिकवा कहो या षिकायत इसे,
वो गिराकर मुझे,
मेरा नाम पुछता है।।
आजकल वो चैंक-चैराहों में है,
अंधेरी राहो मंे है।
नजर,नजर.... उसकी,
हुस्न की अदाओं में है।
अपराध कर,
अपराधी की पहचान पुछता है।
कितना बेबस है इंसान,
सरेआम होकर भी,
एकता का नाम पुछता है।
वे गिराकर मुझे,
मेरा पहचान पुछता है।।
फिक्र नहीं उसे घमंड है,
चंद रूपयों और जोहरों का,
घर पर ही मधूषाला है
घर पर ही आरामगाह,
वो दर्द से भरे दूखियारिनों से,
सौदे का अंजाम पुछता है।
वो गिराकर मुझे,
मेरा पहचान पुछता है।।