(व्यंग्य)
सभ्यता के शुरुआती दौर में सत्ता का समर्थन आसक्ति के बजाय सामर्थ्य और बलिष्ठ लोगों की हाथों की कठपुतली रही है। बदलते दौर के साथ शक्ति की परिभाषा बदलकर लोकतांत्रिक हो गई; जहाँ जनमत यानी जनता का मूड जीतना आवश्यक हो गया। जहां प्रचारकों से लेकर मीडिया के सागर मंथन का गणित हो या जनताना मूड के परिवर्तन में समर्थन का उत्प्रेरण उछाल करना हो। संभवतः इस दुनिया के सबसे बड़े जाहिल ने कहा था, इश्क और जंग में सबकुछ जायज है...!!! इस बात को संभवतः प्रिंस ने ज्यादा ही सीरियसली ले लिया।
इधर-ऊधर की झूमा झपटी और तथाकथित संवादों के पोस्टमैन यानी इधर की बात को ऊधर करने वाले चमचों के भरोसे बोलते बोलते कुछ ऐसा बोले की बात जो बनी पड़ी थी। जनता के बीच थोड़ी बहुत इमेज बनी पड़ी थी। उसमें भरभरा कर भूचाल लेकर आया और फिर पब्लिक उसी को पीटने की तैयारी में लगी पड़ी है।
गेम आफ थ्रोन के वर्तमान लड़ाई में शब्दों की गरिमा बेहद अहम है। वरना, जनता जिसे नकारती है। उसके लिए घर और घाट में पराये पन वाली स्थिति स्वमेंव निर्मित हो जाती है। इस अवस्थिति का दोष यह है कि जायके में ना तो गोस्त भाता है और ना कोई सच्चा दोस्त साथ निभाता है। भले ही सीने पर तुम्हारे लिए एड्रेस के ट्रेंडिंग पोस्टर सोशल मीडिया पर लहरा रहे हों, लेकिन ध्यान रहे। मन ही मन वो भी मुस्कुरा रहे हैं।
हाँ..! ये बात भी सच है कि पूर्व में सिंहासन में कमजोरी समर्थन की दिखी है। मगर वर्तमान में एक मत का दिखना प्रत्यास्थता के कठोरतम स्वरूप का सच्चा वादा है। क्योंकि उनको बराबर मैनेजमेंट आता है। शब्दों की चाशनी में ऐसा उल्टा लपेटे पड़ेंगे। तीर भी आपके और निशाना भी आप बनते जा रहे हैं। मंथन,चिंतन और दर्शन करों वरना जली तो आपकी प्रॉपर बड़ी है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़