Thursday, February 16, 2023

आखिर क्यों होते हैं हड़ताल बारंबार?


                  (अभिव्यक्ति) 
लोकतंत्रिक व्यवस्था में संविधान में सभी चीजों के लिए निर्धारित नियम और विधान संकलित है। विश्व के सबसे बड़े संविधान यानी भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विरोध का अधिकार और एकत्र होने की स्वतंत्रता सुनिश्चित होती है। ऐसे अवसर आते हैं जब इन मूलभूत स्वतंत्रताओं को अन्य मूल्यों और हितों के हित में नियंत्रित किया जाना चाहिए। इतना कहने के बाद मैं इस बात पर भी जोर देता हूं कि अभिव्यक्ति की आजादी लोकतांत्रिक व्यवस्था की जीवनदायिनी है। यह वह साधन है जो हममें से किसी को भी हमारी शिकायतों के निवारण के लिए जन समर्थन जुटाने का प्रयास करने में सक्षम बनाता है। अनुभव ने हमें सिखाया है कि मुक्त सार्वजनिक बहस के माहौल में अन्याय को सहन करने की संभावना कम है या उभरने के लिए भी। उस अर्थ में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वह है जिसे दार्शनिक गण रणनीतिक स्वतंत्रता कहते हैं। यानी एक ऐसी स्वतंत्रता जिस पर अन्य स्वतंत्रता निर्भर करती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक लोकतांत्रिक समाज की शिकायत प्रक्रिया के रूप में वर्णित किया जा सकता है।
              राजनीतिक विरोध में यथास्थिति के प्रति असंतोष व्यक्त करने के लिए एक राजनीतिक प्रणाली के भीतर व्यक्तियों और समूहों द्वारा उपयोग किए जाने वाले कई तरीके शामिल हैं। सविनय अवज्ञा राजनीतिक विरोध का एक विशेष रूप है। जिसमें सामाजिक उद्देश्यों के लिए कानून का जानबूझकर उल्लंघन शामिल है। इस व्यापक अवधारणा के भीतर, सविनय अवज्ञा कई रूप ले सकता है और विभिन्न कारणों से प्रेरित हो सकता है। हालांकि थोरो ने माना कि नागरिक विरोध एक व्यवस्थित और शांतिपूर्ण फैशन में आयोजित किया जाएगा। विद्वान इस बात से असहमत हैं कि परिभाषा के अनुसार सविनय अवज्ञा अनिवार्य रूप से अहिंसक है या नहीं। सविनय अवज्ञा के रूप में किस प्रकार के कार्य योग्य हैं, इस पर असहमति के अलावा, सविनय अवज्ञा कब उचित है, इस पर बहस होती है। कम से कम, नागरिक अवज्ञाकारी को यह प्रदर्शित करने में सक्षम होना चाहिए कि आपत्तिजनक कानून या नीति कल्याण, समानता या न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है। सविनय अवज्ञा शायद ही कभी अकेले अनुनय के माध्यम से काम करती है, लेकिन अक्सर दबाव और जबरदस्ती पर भी निर्भर करती है। इस संबंध में, सविनय अवज्ञा एक विरोध समूह के लिए उपलब्ध रणनीतियों के प्रदर्शनों की सूची के भीतर एक व्यावहारिक रणनीति जैसा दिखता है।
           भारतीय लोकतांत्रिक गणराज्य में 28 राज्य और 8 संघ राज्य क्षेत्र हैं। जहां अगस्त 2022 की स्थिति में कुल 766 जिला मुख्यालय है। इन जिला मुख्यालयों में सैकड़ों की संख्या में शासकीय, सहकारी, निजी, गैर शासकीय और संगठित या असंगठित कार्मिकों का संगठन है। जहाँ किसी ना किसी संगठन का विरोध प्रदर्शन औसतन प्रति दिन होते रहता है। इसका कारण एक ओर शासन के द्वारा निर्धारित नीति, विधान, मौद्रिक, सामाजिक या राजनैतिक  आंदोलन धरना प्रदर्शन होते रहते हैं। जैसे हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ के शिक्षकों द्वारा वेतन विसंगति को लेकर आंदोलन  किये जा रहे हैं। वास्तव में क्या इन आंदोलनों की प्रासंगिकता है या सिर्फ अपने दल बल का प्रदर्शन किया जा रहा है। इस विषयक ध्यानाकर्षण आवश्यक है। खासकर शासकीय सेवाओं में कार्यरत कार्मिक,ब्यूरोक्रेटस के अपनी मांगों को लेकर बैठ जाना बड़ी समस्याओं को जन्म देते हैं। जैसे पूरे शैक्षणिक कैलेण्डर में पाठ्यक्रम के दिवस दो सौ के आस-पास  है। लेकिन धरना और विरोध प्रदर्शन में कम से कम 30 से 50दिनों का कालखंड सूना रह जाता है। सीधा असर शैक्षणिक गतिविधियों और भावी पीढ़ी पर पड़ता है। लेकिन इन आंदोलनों को टाला नहीं जा सकता है? यह प्रशासनिक अमलों और शासित करने वाले राजनैतिक दलों को अवश्य सोचना चाहिए। समाजवादी विचारधारा में यदि आंदोलन का विवरण करें तो, मांग की पूर्ति के बजाय व्याप्त असंतोष है।खासकर कार्मिक वर्ग जो बढ़ती महंगाई का हवाला देते हैं। वहीं कृषक या अन्य वर्ग निर्धारित निति या मूल्यों या परम्परा का विरोध करना चाहते हैं। कुछ राजनैतिक विरोध इसलिए भी होते हैं, जो तत्कालीन शासित दल के विचारों से या विभिन्न योजनाओं से नाखुश रहते हैं।
              विपक्ष की मुख्य भूमिका मौजूदा सरकार से सवाल करना और उन्हें जनता के प्रति जवाबदेह ठहराना है। यह सत्ता पक्ष की गलतियों को ठीक करने में भी मदद करता है। देश के लोगों के सर्वोत्तम हितों को बनाए रखने में विपक्ष भी उतना ही जिम्मेदार है। यदि किसी अधिकार का हनन होता प्रतीत होता है तो विपक्ष की आलोचना पर सुधारात्मक पहल नहीं होता है।तो हड़ताल का मार्ग अपनाना ही पड़ता है। लेकिन इन विरोधी रैलियों, प्रदर्शन एवं धरना के वर्तमान परिदृश्य में स्वरूप बदले बदले से दिखलाई पड़ रहे हैं। खासकर विरोध या आंदोलन कब हिंसक रूप ले लेगा इसकी सुनिश्चितता नहीं है। बीते कुछ माह पहले ही ऐसे ही सेना भर्ती की अग्निवीर योजना के विरोध प्रदर्शन ने हिंसक रूप ले लिया था। यह योजना कोई ग्रेच्युटी या पेंशन लाभ प्रदान नहीं करती है। विरोध करने वालों ने शिकायत की है कि नई योजना पेंशन जैसे मौद्रिक लाभों के उनके दावे में बाधा डालती है, क्योंकि केंद्र की योजना उनके 4 साल के कार्यकाल के पूरा होने के बाद केवल 25 प्रतिशत अग्निवरों को समाहित करने की है। ट्रेन से लेकर रोड़ तक और गांव से लेकर शहर तक के इस प्रदर्शन की आंच फैली, कई सार्वजनिक स्थलों, सम्पत्तियों को होलीकरण के भेट चढ़ना पड़ा। लेकिन क्या बदलते आंदोलन के स्वरूप में गांधी जी के सविनय आंदोलन की गरिमा धूमिल हो रही है। 
          वहीं आंदोलनो के पूर्व क्या कोई व्यापक और परिपक्व रास्ता नहीं निकाला जा सकता है। जिससे लोक मानस और सार्वजनिक सेवा क्षेत्र को अवरूद्ध किये बग़ैर हल निकाला जा सकता है। विचारशील सैद्धांतिक पहलुओं के मद्देनजर यह संभव है। लेकिन क्या वास्तविक स्वरूप में इन आंदोलनों या हड़ताल के पीछे अपने हित की रोटी सेकने की परम्परा से लोग बाज आयेंगे; यह एक बड़ा प्रश्न है।

लेखक 
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़