(व्यंग्य)
छुटपइये आशिक ऐसे होते हैं जिन्हें दैहिक आकर्षण का गुरुत्व ही प्रेम प्रधान लगता है। ऐसा ही हाल आज की जनरेशन में टपाटप व्यवस्था की ओर बढ़ निकला है। कुछ इसी प्रकार के प्रेम की भूख के लिए कुछ झाड़ियों में, उद्यानों और थोड़े चार पैसे इकट्ठे कर लिए तो घंटे के हिसाब से किराये लिए होटल में प्रेम नामक शोध करते मशरुफ पाये जाते हैं। इस बंद दिवारी के बीच कुछ अंतरंग कुछ हालातों के छायाचित्र या चलचित्र को बकायदा कैद कर लिया जाता है। इसकी उद्देशिका सबूत बनने की भी है। जैसे प्रेम नामक यह तत्व यदि मुरझूराते हुए शादी की सीढ़ी चढ़ गया तो ठीक अन्यथा एक दूसरे को वैवाहिक उम्मीदवारों को बरगलाने के लिए अवश्य ज्ञान पेलने के काम आयेगा। यदि यह भी संभव ना हुआ यानी अगली पार्टी ने नज़र अंदाज़ किया तो सोशलमीडिया में बेवफा,बेहया,धोखेबाज जैसे तारीफों के लिए तो लाजमी है। अगर यह भी नहीं हो पाया तो घर वालों को डराने,धमकाने और बरगलाने के लिए भौतिक सुख भोगते वक्त के कैद लम्हें बड़ी करगरता से काम आते हैं।
सौदेबाजी वाले मसले को प्रेम का नाम देकर ब्रेकअप नामक युक्ति का इजात किसने किया है यह ढूढ़ना भी आवश्यक है। इसके यानी ब्रेकअप के खोजकर्ता को निश्चय ही बड़ा पुरुस्कार से नवाजा जाना चाहिए। ऐसा बिलकुल नहीं है एक दूसरे को झेलते रहना है। उससे कहीं अच्छा है दूर-दूर रहना है। यदि मसला दो भौतिक प्रेमियों में बढ़ी तो बात मारपीट यहां तक की टुकड़े-टुकड़े तक करने की नौबत आन पड़ती है। वजहों की तलाश में निकला तो वर्तमान समय में नग्नता के डोपिंग में सलीके से सांस्कृतिक मिलावट को पाया। जहाँ प्रेम को परिभाषित करने की अवधारणा के साथ ही फिरकी लेली गई है। वास्तव में प्रेम में पुरुष हमेशा शिशु होता है और स्त्री सदैव शिशू की संरक्षिता होती है। फिर तो बदला लेगुँगा,छोडूँगा नहीं और अशिष्टता के समीकरण की चाशनी वाले थूक गटकने वाले तथाकथित प्रेमी कौन से प्रेम की व्याख्या करते हैं; यह विचारणीय है।
सआदत हसन मंटो ने क्या खूब लिखा है कि "मेरे जीवन की सबसे बड़ी घटना है,मेरा जन्म।" लगता है आजकल के टटपुंजिएँ आशिको ने इसे ज्यादा दिल से ले लिया है। जो भौतिक लोलुप्ता नहीं मिटा पाने की आड़ में प्रेम की पवित्र साधना को लांछन लगाने पर आमादा है। अपने अभिमान की बत्ती को जेब में रखना ज्यादा उचित है वरना यह संवैधानिक राष्ट्र है प्यारे मनचले आशिकों की लिस्ट में नामजद हो जाओं। और इस बात को समझो की, "अगर आप इन अफसानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो ये जमाना नाकाबिले-बर्दाश्त है।" यह तल्खी भी मंटो जी ने तेवर में दे रखी है।
व्यंग्यकार
प्राज वस्ल
छत्तीसगढ़