Tuesday, November 15, 2022

कहानियां स्वाँग नहीं,सीख के लिए होती है / Stories are not for fun, they are for learning


                                   (चिंतन)


कहानी इस बात का वर्णन है कि कुछ ऐसा कैसे हुआ; और जिसका उद्देश्य लोगों का मनोरंजन करना है। कहानियां सच या काल्पनिक हो सकता है। वास्तव में कहानी मानव जीवन के किसी एक घटना, परिदृश्य या मनोभाव का रोचक, कौतुहल पूर्ण चित्रण करना है। कहानियाँ मानव सभ्यता के आदिकाल से ही मनोरंजन एवं आनंद का साधन रही है। केवल मनोरंजन ही नहीं, वरन् शिक्षा प्रदान करने नीति और उपदेश देने के लिए अच्छे साधन का काम करती है। मुख्यतः कहानी के छ तत्व माने जाते हैं; ये कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, संवाद, देशकाल या वातावरण, उद्देश्य और शैली हैं।
               कई कहानियां जो आगे चलकर चलचित्र का रूप धारण करती है। जिसका फिल्मांकन कहानी में गुथित गुढ़ रहस्यों को पाठकों / दर्शक के बीच परोशने की उद्देश्यिका यह होती है कि लोग उसके मर्म को समझे, लेकिन वर्तमान परिदृश्य तो कुछ और ही फलन को ग्राही है। खासकर युवाओं में कहानियों का नाटकीय रूपांतरण का प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिल रहा है। वास्तव में उद्देशिका से कहीं अधिक प्रभाव कहानी के पात्रों जिसमें नकारात्मक भूमिका का महिमामंडन करके रखा जाता है। वे उसे आदर्श मानने लगते है। संभवतः यह विवेकात्मक दृष्टिकोण की अल्पता का प्रभाव है कि युवा पीढ़ी नकारात्मक चरित्रों के हाव-भाव, चाल-ढ़ाल और वेशभूषा को तथाकथित रूप से अडियलिस्टिक मानने का मिथक पाल लेते हैं। वहीं ऐसी विचारधारा का जन्म भी हो जाता है जो उनके वैचारिक दृष्टिकोण को पूर्णतः नकारात्मक करके रख देता है। और शेष में नैतिकता के नाम पर ठूंठ के अवशेष बच जाते हैं। बीते कुछ वर्ष पूर्व किसी छायाचित्र के पटकथा की एक पंक्ति सोदाहरण रखने का प्रयास कर रहा हूँ जिसमें एक पात्र कहता है कि, तुममें इतने छेद करेंगे की तुम कन्फ्यूज हो जाओगे की सांस कहाँ से लें और......!!!, ऐसे ओजपूरित संवादों के माध्यम से युवाओं के मनोमस्तिष्क पर नकारात्मकता का लेपन तो लाजमी है। हालफिल हाल में बहुचर्चित पात्र रॉकी के जैसे बनने,दिखने और जुबान पर सिगरेट चढ़ाते युवाओं की फौज आप किसी भी पान भंडार के सामने जरूर दृष्टिगत कर सकते हैं। वास्तव में उस पटकथा के लेखक की उद्देश्यों से परे, युवा वर्ग में नकारात्मक पात्र की छवी ज्यादा असरदार होने को आमादा हो गई।
        ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ युवाओं में नवयुवकों या पुरूषों में ये चलन है। भई 21वीं शदी की कंधे ये कंधे मिलाती परम्परावादी विचारधारा में नारी शक्ति कैसे पीछे रह सकती है। फिल्मों में अदाकाराओं के जैसे वेशभूषाओं से लेकर चारित्रिक विशेषताओं को भी युवा या कहनें नवयुवतियों में खास ट्रेंडिंग है। कपड़ों की तरह बदलती रंगमंच की नारी अदाओं के कदरानों में युवतियां/ महिलाएं  भी तीव्रता से प्रशंसक बनने की ओर हैं। बहरहाल, संभवतः ऐसे प्रसंस्करणों में या कहें पटकथाओं में सहेज कर परोशे गए उद्देश्य की छिन्न-भिन्नता वाले परिणामों से अवश्य ही लेखक वर्ग का हृदय रुदन करता होगा।



लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़