(समीक्षा)
सुबह-सुबह चाय की चुस्कियों के साथ अखबार के पन्नों पर नजरे गड़ाए बीते की घटनाओं के साथ चाय का स्वाद ले रहा था। आंगन में बैठे कुर्सी को थोड़ा और वजन देते हुए पीछे की ओर लेट गया। सामने रखा मोबाइल अचानक हरकत में आया देखा तो किसी मित्र का वाट्सअप संदेश था। प्रातः-प्रातः उसे सुप्रभात कहने की बेहतरीन आदत है। खैर इन सभी के बीच वाट्सअप के स्टेट्स पर नज़र पड़ी। वैसे जो वाट्सअप नहीं जानते है उनके लिए यह बताना भी जरूरी है कि स्टेटस कौन सी बला है? वास्तव में यह कोई स्थिति या फाइनेंशियल बैकग्राउंड का रिपोर्टकार्ड नहीं; बल्कि यह तो भावनाओं को व्यक्त करने के लिए 30 सेकेंड की वर्चुअल स्मृति है जिसे साझाकर करके लोग अभी ई-माध्यम में भावना व्यक्त करते हैं। इसे ऐसे समझिए की जैसे मैं आंगन में बैठे मेरे बाड़ी में लगे ईमली पेड़ को देख रहा हूँ। जिसमें कुछ साइबेरियन पक्षी मेहमान है; और बंदरों की एक बिरादरी भी यहां निवास करते हैं। आंगन की हरियाली को करेले की लताएं दीवार फांदती बाड़ी के पार पहुचा रही है। सारा दृश्य मुझे एक अलग ही सुकून देता है। यही भावना वर्चुअल मोड यानी वाट्सअप की दुनियाँ में व्यक्त करना चाहूँ तो एक फोटो और निचे छोटा सा कैप्शन की फिलिंग कूल विथ ए मोमेंट; लोग इस प्रतिक्रिया से समझ जायेंगे की मुझे सुकून मिल रहा है। और कुछ प्रतिद्वंदी जल भी जायेंगे की अर्रे....!!! इसे सुकून मिल रहा है।
बहरहाल, मेरा ध्यान वाट्सअप के स्टेटस की ओर बढ़ा। मैंने ऑब्जर्व किया की प्रातः लोग धार्मिक प्रवृत्ति में निपूर्ण नजर आते हैं। बकायदा अपने इष्ट के साथ सेल्फी यदि इष्टदेव प्रतिबिंबिक यानी साकार हैं तो और यदि निराकार हैं उनका कोई ना कोई सिम्बॉल तो अवश्य ही होगा। जिसे निश्चित ही सौ प्रतिशत वाली श्रद्धा के साथ रखते हैं। वहीं कुछ ऐसे भी धार्मिकता या पंथ के प्रदर्शक हैं जो दिव्य ज्ञान के तीस सेकेंड के चलचित्र यानी रिल्स में अनुभवहिनता के कर्मठ डिग्री के साथ के बड़ी-बड़ी बाते कह जाते है। ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि जनाब किसी धर्म या पंथ का विरोध कर रहा हूँ। लेकिन निजी तौर पर जो वर्चुअल मोड पर हो रही धार्मिक रार की गहराईयों को देख कर यदि मौन रहें तो यह निश्चय ही बुद्धिजीवी वर्ग के लिए शोभायमान नहीं प्रदर्शित होता है। किसी भी धर्म की गुढ़ता यह है कि मनुष्यता को जगाकर बैर मुक्त, स्वच्छंद समाज की कल्पना को साकार करें। लेकिन हमनें तो धार्मिक विचारों को भी चकराव की दृष्टि से वर्चुअल स्तर पर उड़ेल दिया है। सबसे बड़ी और चुनौतीपूर्ण तर्क यह है कि किसी भी व्यक्ति, समूह या नेतृत्व को नफ़रत करना सीखा दीजिए। इतना काफी है उसे बर्बाद कर देने के लिए। दूसरी ओर भावनाओं के प्रबल उफान पर अपनी भावनाओं को उच्च और दूसरे तबके की भावनाओं में खोट ढूढ़ने की परम्परा कोई नहीं है। हाँ, बदलाव की शुरुआत थोड़ी ज्यादा बढ़ी नहीं है। संघर्ष न केवल दो लोगों या दो वर्गों या दो चक्की के पाटों के बीच ही नहीं होता है। बल्कि इस संघर्ष से किसी और तृतीय पक्ष को लाभांश अवश्य मिल जाता है या अवसर खड़ी कर देता है।
खैर, मैनें यह भी देखा की द्वी-अर्थी शब्दों के ताने-बाने से बुने गए। शब्दों के आड़े तिरछे पंक्तियों पर ग्लैमर के तड़के के साथ अश्लीलता के आभूषण तो लोगो ऐसे खरीद रहे हैं जैसे रोड़ किनारे लगे सौ रूपए में दो जोड़ी कपड़ों के लिए बरबस लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है। संभवतः डिजिटल स्तर पर धार्मिक और दर्शन के प्रदर्शन को देखते देखते आँचलिक खबरों पर नजर पड़ी; जहाँ छेड़छाड़, बलात्कार, धोखाधड़ी और तो और वृद्धजनों के साथ बदसलूकी की खबरों से अखबार की सुर्खियां रो रही थी। एक तरह वर्चुअल मोड पर दर्शन,जीवन जीने की कला और सभ्यता के स्वरों को सरगम करते लोगों को देख रहा दूसरी तरफ धरातलीय वास्तविकता दोनो ही परिदृश्य आपके समक्ष है। और लोक तंत्र में जनता ही तो न्यायाधीश है अतैव यह समीक्षा जनता को सादर समर्पित है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़