(अभिव्यक्ति)
शांति हमारे जीवन की आवश्यक कुँजी है, क्योंकि शांत वातावरण में ही मनुष्य के सृजनात्मक व्यक्तित्व का वर्धन होता है। शांति मनुष्य के जीवन में सकारात्मकता की वृद्धि करती है। शांति में प्रगति न केवल निहित होती है, बल्कि उसे समृद्धि की पहली सीढ़ी के पर्याय में गिना जाता है। व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास शांति के धरातल पर ही संभव है। वर्तमान परिदृश्य में लाल आतंक से पीड़ित क्षेत्र विशेष में शांति को लिए क्षुधित कराह के दो स्वरों का सांकेतिक परिदृश्य शब्दों की परिधि में बाँधने का प्रयास करता हूँ। मओवाद से ग्रसित क्षेत्र विशेष जहां जंगल की सत्ता और कानून व्याप्त है। जंगल वैसे तो अपने आप में शांति के व्याप्त संरक्षित क्षेत्र के लिए जाना जाता है। जहाँ वन्यजीवों के साथ वनवासियों का जीवन शैली सादगी में गुजरता है।प्राकृतिक क्षेत्रों में अतिक्रमण भी उतना जितनी प्रकृति की हिदायतें हों। भोलेपन से विभिन्न संस्कृतियों के जन्म,संरक्षण और संवर्धन के अनुकूल संसाधान से लब्धित ये वन्य जीवन पर्यावरणिक सुख से ओत-प्रोत है। जहाँ निर्भयता से मनु,पशु,जीव,जंतू, पक्षी और हरितमा विचरण करते हैं। मगर इसी परिदृश्य में अचानक कुछ हमरूप से दिखने वाले बहरुपियों का आगमन संभवतः शांत सत्ता में कोलाहल उत्पन्न करने वाला साबित हुआ। अचानक ही गतिविधियों के तेज आवागमन की एक मध्य रात में एक नकाबपोश हथियार से सुसज्जित किसी व्यक्ति विशेष के घर में घुसा। बिन-बुलाए मेहमान की अनचाहे आहट ने पूरे परिवार को हतप्रद कर दिया। अचानक ही परिवार के किसी सदस्य को साथ चलने को कहा जाना अवरोधों के सृजन का कारक बनना तो तय रहा ही है। विरोध के स्वर के जवाब में उस नकाबपोश ने लोगों को बेतहाशा डराने की मंशा से एक युवती (जो उस बंधक बनाने के लिए प्रयोज्य व्यक्ति की पुत्री है) के चेहरे पर अपने बूट से हमला कर जमीन पर निढ़ाल करते हुए। पीछा नहीं करने और सलामती के हिदायतों में शांत रहने की बात क्रोधित स्वर में कहा गया। अपहरित व्यक्ति को पीटता हुआ अपनी गाड़ी में बैठाकर जंगल की घोर तम के शांत वातावरण में लुप्त कर दिया गया। इधर-पूरे गांव में मध्यरात्रि के बीच तफ्तीश और पुलिस को पत्तासाजी की गई।मगर सुबह तक कोई खबर नही। मिली तो गांव से थोड़े दूर विक्षिप्त अवस्था में उस व्यक्ति का शरीर जो प्राण त्याग चुका था और लाल रंग से रंजित कपड़े में अपनी उपस्थिति धमक दर्ज कराती लाल आंतक का संदेश। जिसकी उद्देशिका पुलिस और सैन्य बलों से सपंर्क में जुड़े लोगों को चेतावनी ही होगी।
बहरहाल ये हाल-ए- बयां काल्पनिक ही सही लेकिन वास्तविक के समीकरणों से परे भी नहीं। इसी घटना के परिप्रेक्ष्य में अव वह स्थल लाल रेखांकित हो गया । जहाँ सुरक्षा बलों की गस्त और फिर रात्रि को लाल आतंक की धमक दोनो पक्षों की लड़ाई में पिसते वनवासियों के लिए दोनो ओर से कुएँ-खाई की मुहावरे की प्रासंगिक होने का अंकन साफ दिखाई देने लग जाता है। जहाँ एक ओर सुरक्षा देने वाले सैन्य अफसर-सीपाही की कड़क बोली भोले लोगों के हृदय को कम्पित कर देती है।वहीं क्रूरता भरे विपक्ष लोगों की बरबरता मृत्यु से पहले की भयावह स्थिति को संज्ञान में ला देती है। सादा और शांत जीवन के प्रेमी इन लोगों के मन,मस्तिष्क और स्वरूप में यह भय निश्चित ही देखा जा सकता है। कभी ग्रामीण को जनताना सरकार की बैठकों में बुलाकर हमदर्द बनने की कोशिश, कभी मुखबीरी के नाम पर दोनो पक्षों से होने वाली हिंसा से थर्रथराते लोगों में अच्छे दिनों की कामना जैसे तैसे जीने पर विवश कर रख देती है। संभवतः हृदय की कचोटती टीस के साथ जीवन के किस्तों को जीते लोगों में उत्सव का उत्साह तो होता है।लेकिन कुछ अनहोनी के भय से उत्साह में हुडदंग बेदम दिखाई देता है। रात के सन्नाटे में कदम ताल करती आवाजें बिस्तर पर निढ़ाल मृत के समान शव बनने पर विवशता का प्रमुख कारण परिवार के सदस्यों की सुरक्षा है। कभी कोई विस्फोट या राइफल की आवाज तो जैसे प्राण पखेरु उड़ा देते हैं।मगर इन वनवासियों का सवाल सिर्फ एक की जनाब घर तो यही है इसके सिवा जायें तो जायें कहाँ? दो विरोधी संघर्षों के जाँते में फसे घुन और कीड़े की कहानी से दिखते इस परिदृश्य में अशांति की सत्ता का भयावह परिणाम केवल वो आम लोग ही व्यतीत कर रहे हैं। जिनके शांत वातावरण में कोलाहल की रौद्रता का लेपन माओवाद के जरिये नक्सल संगठनों ने पिरोएँ हैं।
अंतर्राष्ट्रीय संगठन संयुक्त राष्ट्र की शैक्षणिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन यानी यूनिसेफ के संविधान ने शांति के पर्याय में कुछ शब्द ऐसे बुने हैं कि,'क्योकि युद्ध का आरंभ लोगों के दिमाग में होता है, इसलिए शांति के बचाव भी लोगों के दिमाग में ही रचे जाने चाहिए।' कुछ हद तक तो यूनिसेफ के संविधान की यह टिप्पणी उचित लगती है। अर्थात् जब तक हम अपने मस्तिष्क में शांति की बातें लाते रहेंगे और उसके अनुसार अपनी गतिविधियों को बनाएँ रखेंगे। हमारे वातावरण में केवल शांति का सत्ता होगा। हिंसा सबसे पहले हमारे दिमाग में पनपती है तथा जैसे ही वह तेज रूप धारण कर लेती है। लोग आपे से बाहर हो जाते हैं और हिंसा कर बैठते हैं। अतः जरूरत इस बात की है कि सबसे पहले दिल-दिमाग से सात्विक होने का प्रयास किया जाये। अध्यात्मिकता की तथा हमारा बढ़ता झुकाव इस दिशा में कारगर सिद्ध होगा। 'जीओ और जीने दो' के सिद्धांत का पालन सदैव करना चाहिए तथा शांतिपूर्ण वातावरण बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए । लेकिन मानव मस्तिष्क पर केंद्रित रहना ही शांति की स्थापना के लिए पर्याप्त नहीं है। दरअसल हमें न्यायपूर्ण और लोकतांत्रिक समाज की रचना के लिए हिंसा के सभी रूपों को त्यागना होगा। हमें शांति स्थापित करने के विभिन्न तरीके अपनाने होंगे। हमे युद्ध जैसी स्थिति से बचना रहना चाहिए। परमाण्विक प्रतिद्वंद्विता को खत्म करना शांति स्थापना की दिशा में एक सकारात्मक कदम होगा। शान्ति एक स्थिति के ज्ञात है कि शांति एक बार में हमेशा के लिए हासिल नहीं की जा सकती है। इसे बनाए रखने के लिए सतत् प्रयास होते रहने चाहिए। परंतु सवाल यह भी उठता है की हिंसा के दम पर अपनी मांगें और शर्तों को पुरा कराने की मंशा रखने वालों को कैसे समझाया जाये। क्या शांति के पर्याय भूल चुके मुख्यमार्ग से पृथक युवाओं को शांति के वैभवशाली परिधि में वापस लाया जा सकता है?
शांति के सत्ता के लिए लोक को संबोधित कहते हुए बशीर बद्र जी कहते हैं, 'सात संदूक़ों में भर कर दफ़्न कर दो नफ़रतें।आज इंसाँ को मोहब्बत की ज़रूरत है बहुत।' वास्तव में जो लोग भटके हुए हैं कहीं न कहीं वे भी राष्ट्र का हिस्सा है। क्योंकि राष्ट्र एक-एक जन के सहयोग से बनता है। वैमनस्यता से पृथक मानवतावादी विचारधारा में इन पथभ्रष्टों के हाथ पकड़कर एक बार फिर सुधरने का मौका दिया जाये।और ये उन पथभ्रष्ट लोगों को भी विचार करना होगा की वे किससे,क्यों और किस लिए लड़ रहे हैं। स्वच्छ लोकतंत्र में विचारों का युद्ध विचारों से लड़ना कारगर है।हथियारों से लड़कर कोई शांति का महल बनाना आकाशीय पुष्प की भांति प्रतीत होता है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़