(चिंतन)
भारतीय दर्शन में एक अद्वितीय या सर्वात्रिक प्रभुत्व की बात कही गई है। धर्म,विज्ञान,शास्त्र या दर्शन सभी में इस अद्वितीय शक्ति को क्रमशः ईश्वर, परमाणु, शक्ति और प्रकृति का नाम दिया गया है। प्रश्न उठता है कि हम किसकी कल्पना कर रहे हैँ और उस काल्पनिक परिकल्पना के इर्दगिर्द क्या वास्तविक स्वरुप में कोई शक्ति है। जैसे प्रत्येक कण में विज्ञान कहता है, यह संघट्य परमाणुओं के संग्रह मेल की परिणिति है। इसी तरह एक धार्मिक अनुयायी कहेगा कि, ईश्वर सर्वत्र है। समस्त सत्ता में ईश्वर का ही शासन है। भक्ति में प्रेम होना चाहिए, अहंकार नहीं। प्रकृति परमात्मा की अदभुत और अनुपम रचना है। नदी, पर्वत, वन और उपवन सहित कण-कण में ईश्वर व्याप्त है। भगवान का स्वभाव दया, कृपा और करूणा का ही है। लेकिन इस सृष्टि की सम्पूर्ण व्यवस्था में हम देखते हैं कि हमारे जन्म से पूर्व भी यह निकाय थी।चीर काल से परिवर्तन धीरे-धीरे हो रहा था,हो रहा है,और होते रहेगा। यह प्रकृति का नियम है।निरंतर प्रवाह की वेदी को गतिमान करना है। सम्पूर्ण सत्ता की दार्शनिक भाव का बोध कराते ईशोपनिषद की चतुर्थ मंत्र में उल्लेखित है कि,
'अनेजदैकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।
तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥'
वह ब्रम्ह अचल और एकाग्रता से लब्धित मन से भी अति तीव्र चलने वाला है। क्योंकि वह सब जगह हमारे विचार से पहले ही वहाँ पर आसंदी लिए हुए हैँ। वो ब्रम्ह अपरिमेय है जिसें इंद्रियों के परिधि से बांध पाना संभव नहीं है।क्योकि वही आदि है वहीं अनंत है।वह स्थिर है,वह मुक है और अगले ही क्षण वो गतिमान है, वाचाल है। प्रकृति के विभिन्न पृष्ठों पर उनकी उपस्थिति के पर्याय से हमें क्या प्रासंगिक व्यवहारिकता की ओर इंगित करती है?
वास्तव में सर्वत्र सत्ता का आधार है की मानवीय विचारों में इतनी प्रवीणता होनी चाहिए की वह इस सांसारिक भूमि में समस्त निकायों में ईश्वर, प्रकृति, परमाणु, ज्ञान, बोधिसत्व जो भी कल्पना का नाम दें।लेकिन सारांश सभी का एक है कि हर कण का स्वामित्व किसी और के सत्ताधिन है।तो फिर हम आपस में बैर क्यों करें? वो महामूर्ख से कम भी नहीं जो कलेवर और अहंकार को अपने निकट समझता है। ये ऐसी स्थिति है मानों बर्फ को हाथ में रखकर मुट्ठी बंद करे, स्वामित्व प्रदर्शन करना है।जो समय के साथ हाथ से फिसल कर पूनः प्रकृति में समाहित हो जाता है। जैसे ऊष्मा को ना तो उत्पन्न किया जा सकता है और ना ही नष्ट किया जा सकता है। केवल रूपांतरण संभव है।वैसे ही हम में और हमारे परिवेश की प्रकृति अनंत है। इस नाश्नर शरीर के लिए, क्षणभंगुरता से लिप्त इस मन के लिए ईष्या के ताप से कहीं अच्छा है आनंद में विलय होने का ,क्योंकि सारांश तो प्रकृति है। बंधनों से मुक्त कर्मों को सर्वोत्तम श्रृंग पर ले जाने का प्रयास करते हैं।यह जीवन प्रकृति का है,प्रकृति को समर्पित जीवन में प्रकृति से जुड़ते हैं। क्योंकि अहम् ब्रम्हा अस्मि यानी यदि हम प्रकृति के साथ हैं तो अनंत है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़