(अभिव्यक्ति)
ऐसा नहीं है कि फेक न्यूज़ या अधिप्रचार से हम परिचित है। फेक न्यूज़ या फर्जी खबर का बोलबाला देखने को मिलता है। सोशल मीडिया के तंत्रिका में बहने वाली रूधिर की तरह बेहद ही रोचक ढंग से फैल गया है। अधिप्रचार या प्रापगेंडा उन समस्त सूचनाओं को कहते हैं जो कोई व्यक्ति या संस्था किसी बड़े जन समुदाय की राय और व्यवहार को प्रभावित करने के लिये संचारित करती है। लेकिन यह प्रचार शैशवावस्था से किशोरावस्था तक पहुचते- पहुचते फर्जी खबरों का रूप धारण कर लिया है। याद आता है वह द्वितीय विश्वयुद्ध का दौर जब हिटलर के खिलाफ़ अमेरिका के द्वारा कई पोस्टर प्रचार किए गए। ऐसे ही उदाहरणों में से एक है अधिप्रचार जिसमें एक नाजी को किताब में तलवार घोंपते हुए दिखाया गया है। जिसका उद्देश्य यह था की लोगों तक नाजीवाद के विरोध में अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त करना रहा है। समाज में अफवाहों पर आधारित समीकरण विचारों और आचरण को प्रभावित करता है। दूसरों के प्रति और सामान्यतः दुनिया में हमारे द्वारा देखे जाने वाले दृष्टिकोण को प्रभावित करता है। 1942 के दौर में हजारों अफवाहों को प्रचारित किया गया। इस संदर्भ में कई शोधों में इनके उल्लेख मिलते हैं। यह अध्ययन अफवाह का पता लगाने के क्षेत्र में प्रासंगिक शोध का आधार है। 1960 और 1970 में कई प्रमुखों के साथ चिंता की एक और श्रृंखला देखी गई। माकी डी और थॉमसन ने गणितीय मॉडल के आधार पर अफवाह के प्रसार पर अनुसंधान को देखा जा सकता है। मोबाइल और इंटरनेट के अविष्कार ने जहाँ लोगों को सूचनाओं का भंडार दिया। वहीं अफवाहों को नवीन आयाम भी दिया। क्योंकि यह संसाधन बेहद सटिक और कम समय में अधिप्रचार के बेहतर विकल्प विकसित हो गए। जहाँ बिना सिर पैर के सूचनाओं को तर्कसंगत माध्यम से प्रचार करने की सुलभता हो गई।
अफवाहों या फेक न्यूज़ की प्रासंगिकता एवं प्रायोजित करने के उद्देश्यों के पड़ताल करें तो ज्ञात होता है कि यह किसी विचारधारा के विपरित प्रचारों की सुनियोजित रणनीति है। जिसके माध्यम से आर्थिक, सामाजिक और सुरक्षात्मक ढांचे को आघात करना होता है। जैसे मॉब लिंचिंग की घटना का प्रादुर्भाव में कभी-कभी असत्य सूचनाओं का गठजोड़ कार्य करता है। जो स्थानीय लोगों में इतना द्वेष भर देता है की वे कानून की सीमा लांघ जाते हैं। कुछ अफवाहों का उद्देश्य यश गान को लेकर भी गढ़े जाते हैं। जो समय के साथ-साथ धारणाओं में परिवर्तन को ग्राही होते हैं।
ऐसे ही अफवाह के प्रसारण में अंग्रेजी अखबार ने वर्ष 2020 में दावा किया कि 29 अप्रैल 2020 को दुनिया खत्म हो जायेगा क्यों इस दिन धरती से एक एस्ट्राइड टकराने की संभावना है। यह खबर सोशल मीडिया पर तेजी से फैली हालांकि नासा ने इसकी सच्चाई बताते हुए इसे अफवाह करार दिया था। ऐसे ही कई उदाहरण भरे पड़े हैं जिसने लोगों के बीच कौतुहल का विषय निर्मित कर दिया था। बहरहाल, फेक न्यूज़ के बढ़ते ट्रेंड ने समाज को कई हिस्सों में बाट दिया है।
फेक न्यूज़ के ट्रेंड पर है जो कि एक तरह की पीत पत्रकारिता (येलो जर्नलिज्म) है। जिसके माध्यम से किसी के पक्ष में प्रचार या मिथ्या वाचक तथ्य फैलाने जैसे कृत्य सम्मिलित होते हैं। किसी व्यक्ति या संस्था, संगठन की छवि को नुकसान पहुंचाने या लोगों को उसके खिलाफ झूठी खबर के जरिए भड़काने को कोशिश फेक न्यूज है। सनसनीखेज और झूठी खबरों, बनावटी हेडलाइन के जरिए अपनी रीडरशिप और ऑनलाइन शेयरिंग बढ़ाकर क्लिक रेवेन्यू बढ़ाना भी फेक न्यूज की श्रेणी में आते हैं। फेक न्यूज किसी भी व्यंग या पैरोडी से अलग है। क्योंकि इनका मकसद अपने पाठकों का मनोरंजन करना होता है, जबकि फेक न्यूज का मकसद पाठक को बरगलाने का होता है।
वर्तमान समय में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें फेक न्यूज़ के माध्यम से कई प्रॉप्गेंडा फैलाने के मकसद से प्रचार प्रसार हो रहे हैं। कई नामचीन पत्रकार भी ऐसे भ्रामक प्रचारक की भूमिका में आ गए हैं। समय के साथ बढ़ते फेक न्यूज़ कहीं न कहीं सामाजिक पृष्ठभूमि को उत्थल- पुथल करने के लिए जिम्मेदार है। कई फेक न्यूज़ के माध्यम से जातीय, समूह, रंग, धार्मिक और आर्थिक लोक समूह में वैमनस्यता परोसने का प्रयास होता है। ऐसे वातावरण में पाठक वर्ग को जागरूक और विश्लेषण की भूमिका में आना अनिवार्य शर्त है। अन्यथा संघर्षों का दौर और चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ता चला जायेगा।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़