(अभिव्यक्ति)
विरोध यानी प्रतिरोध या बाधा से है, जो किसी विशेष परिस्थिति के लिए लोगों का चयन स्वीकार्यता की स्थिति से पृथक परिवर्तन की मांग करता है। उस स्थिति में दो वर्ग प्रथम जो परिस्थिति के समर्थन में हो और दूसरे ऐसे लोग जो परिस्थिति को अपने प्रतिकूल समझकर विरोध उत्पन्न करते हैं। इस दशा में नियोजित तरीके से विरोध दर्ज कराने की प्रथा का आगमन हुआ, जिसे हड़ताल का नाम दिया गया। हड़ताल यानी वह अवधि जब कम करने के लिए बेहतर दशाओं तथा अधिक धन की मांग के समर्थन में लोगों द्वारा काम करने से मना कर देने की स्थिति है। वैसे हड़ताल के कई प्रकार संभव है। ज्ञातव्य है की इतिहास में पहली दर्ज की गई हड़ताल 14 नवंबर 1152 ईसा पूर्व प्राचीन मिस्र में हुई थी। जब दीर अल-मदीना में रॉयल नेक्रोपोलिस के कारीगरों ने एक विद्रोह का आयोजन किया था। यह घटना, जो फिरौन रामसेस तृतीय के शासन में हुई थी, उस समय के एक पपीरस पर विस्तार से दर्ज की गई थी। कारीगरों का आपने स्वामित्व या प्रबंधन के खिलाफ़ जागृत श्रमिक वर्ग का पहला आंदोलन था। जिसने वैश्विक रूप में विरोध/प्रतिरोध के वास्तविक तरीकों को जन्म दिया। इसी पृष्ठभूमि पर आगे चलकर विरोध ने नरम-गरम दो पृथक विचारधाराओं को जन्म दिया। नरम यानी सरल, सहजता या सत्यता से आशय है। जो आगे चलकर सत्याग्रह के रूप में स्थापित हुआ। जिसमें अहिंसा के माध्यम से असत्य पर आधारित बुराई या अवरोध का विरोध करना ही वास्तव में सत्याग्रह है।यह शारीरिक बल या युद्ध-संघर्ष अथवा शस्त्रों की भौतिक शक्ति प्रदर्शन से सर्वथा भिन्न है। यह पूर्णरूपेण आत्मा की शक्ति पर आधारित है। सत्याग्रह का संचालन आत्मिक शक्ति के आधार पर किया जाता है। सत्याग्रह के सम्पूर्ण दर्शन का आधारभूत सिद्धान्त यह है कि, सत्य की सर्वदा ही जीत सुनिश्चित होती है।
गांधी जी इसी सत्याग्रह के पक्षधर रहे हैं। आजादी के लड़ाई के तात्कालिन समय में विरोध अहिंसा के पालन के साथ राजनीति था। लेकिन कभी कहीं छोटे से हिंसक झड़प या किसी मुद्दे पर प्रदर्शनकारियों के हाथों में शस्त्र आने की संज्ञा होती तो, सत्याग्रह के नेतृत्वकर्ता तत्काल ही सत्याग्रह या आंदोलन को स्थगित कर देते थे। कारण था, अहिंसा के प्रति अपार श्रद्धा। वर्तमान समय में विरोध या प्रतिरोध को प्रतिरोध से कम नहीं समझा जा रहा है। संभवतः आज के सत्याग्रहियों ने गलत या त्रुटियों से पूर्ण शब्दकोश पढ़ लिया है। जो विरोध प्रदर्शन को सार्वजनिक संपत्ति को तोड़फोड़ और आगज़नी के माध्यम से प्रदर्शित करने में आमादा हैं।
वर्तमान में युवाओं सेना भर्ती के लिए अग्निपथ योजना के प्रति आक्रोश का दौर चल रहा है। चार साल की सैन्य सेवा के पश्चात् रिटायर्रमेंट की नीति का विरोध किया जा रहा है। मिडिया रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में विरोध कर रहे उपद्रवियों पर पुलिस की कार्रवाई जारी है। तकरीबन डेढ़ सौ से अधिक प्राथमिकी रिपोर्ट दर्ज हो चुकी हैं। आठ सौ से अधिक उपद्रवियों को बिहार पुलिस ने हिरासत में लिया है। पुलिस का कहना है बिहार के कई कोचिंग संचालकों ने युवाओं को भड़काया था, जिसके बाद पूरे राज्य में हिंसक प्रदर्शन हुए। इसी प्रकार तेलंगाना से लेकर हरियाणा, राजस्थान, यूपी तक सेना में भर्ती होने का सपना देखने वाले युवा सड़क पर दिख रहे हैं। ये ऐसे युवाओं का झुंड या गिरोह है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश और न्याय पीठों की अवहेलना कर रहे हैं। सार्वजनिक संपत्ति का दोहन, आगज़नी और विरोध के नाम पत्थरबाजों की भूमिका का निर्वाह करना कहाँ तक जायज़ है। इन युवाओं को सोचना चाहिए। क्या ऐसे युवाओं के लिए वास्तव में सैन्य सेवाओं में कोई स्थान भी होगा। जो राष्ट्र के सम्पत्ति का विरोध करने पर आमादा है।
वहीं इस बात की आशंका से मूह नहीं मोड़ा जा सकता है कि युवाओं को बरगलाने एवं विरोध को हिंसात्मक स्वरूप देने के पीछे राजनीति मंशा ना हो। क्योंकि वर्तमान दौर में राजनीति हितों को सर्वोपरि मानने और हिंसा की आग में अपनी अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकने वाले दलों की कमी नहीं है। वहीं से सेना भर्ती के इस अनुप्रयोग को कुछ बुद्धिजीवी देश की सुरक्षा के लिए खतरा से जोड़कर देख रहे हैं। जबकी कई राष्ट्रों में ऐसे ही पद्धति से सैन्य भर्ती की प्रक्रिया पूर्ण होती है। जो की सफल भी है। लाजमी है की नवीन प्रयोग भावी समय में हमारे सैन्य बलों को और दोगुना बल एवं सशक्तता प्रदान करें।
लेखक
पुखराज प्राज