(विचार)
पर्यावरण संतुलन और संरक्षण के विषय में संदर्भित करने वाले बुद्धिजीवी वर्ग में वैशिष्ट्यपूर्ण तर्क होता है कि, पर्यावरण को संतुलन के लिए एक पेड़ लगाकर वर्तमान के आज को संरक्षित मानने की भूलकर रहे हैं। जबकि प्रकृति के विभिन्न फलकों में उसकी क्षरण की उद्देशिका हमारे आने वाले कल की विभीषिका के रूप में परिभाषित होगी। ऐसा तो बिलकुल नहीं है की प्रकृति के असंतुलन की स्थिति में केवल संकट मानव जाति पर हो, अपितु संपूर्ण निकाय पर इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा। लेकिन क्या उस महाप्रलय के दौर के पश्चात् जीवन खत्म हो जायेगा? यह एक बड़ा प्रश्न है। इस प्रश्न का जवाब भी प्रकृति के गर्भ में है। होमोसेपियंस यानी मानवों के जन्म के पूर्व भी इस धरती पर जीवन रहा है। वे जीव डायनासोर कहलाते थे और उनके लुप्त होने के मुख्य कारणों को जानने के लिए वैज्ञानिकों ने वैश्विक तौर पर 52 स्थानों में भूगर्भिक परत के नमूनों पर शोध किया है। वैज्ञानिकों के इस दल का कहना है कि चट्टानों में सल्फर की अल्पता का पता चला है। जबकि चूना पत्थर के आसपास के क्षेत्रों में इसकी मौजूदगी अधिक रही होगी। ज्ञातव्य है की इसी कारण वैश्विक स्तर पर ठंडे मौसम और तेजाब जैसी बारिश होने के कारण पृथ्वी पर रहने वाले डायनासोर समेत अन्य जीवों को काल विलुप्त हो गया। एक प्रकार से एक बड़े शीतकाल ने जीवन को लगभग नष्ट कर दिया।
जनवरी 2022 के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक नए अध्ययन से पता चलता है कि जीवाश्म संभवत: 2लाख 30 हजार साल पहले हुए क्षेत्र में बड़े पैमाने पर ज्वालामुखी विस्फोट से पहले के हैं। शोधकर्ताओं की टीम ने ज्वालामुखीय राख की परतों पर रासायनिक उंगलियों के निशान की उम्र का पता लगाया है, जो तलछट के ऊपर और नीचे मौजूद हैं। यहीं पहली बार जीवाश्मों की खोज की गई थी। वहीं पुरातत्वविदों ने वर्ष 2017 में विश्व के पहले अतीत के होमो सेपियन्स जीवाश्मों की खोज की घोषणा की थी। यह अफ्रिका के मोरक्को के जेबेल इरहौद में 3लाख साल पुरानी खोपड़ी थी।
चार्ल्स डार्विन की ओरिजिन ऑव स्पीशीज़ नामक अपनी पुस्तक से मानवों के जन्म के रहस्य को दैवीय शक्ति से जोड़ते थै। उनकी संख्या, रूप और आकृति सदा से ही निश्चित रही है। परंतु सन् 1859 में उक्त पुस्तक के प्रकाशन के पश्चात् विकासवाद ने इस धारणा का स्थान ग्रहण कर लिया और फिर अन्य जंतुओं की भाँति मनुष्य के लिये भी यह प्रश्न साधारणतया पूछा जाने लगा कि उसका विकास कब और किस जंतु अथवा जंतुसमूह से हुआ। अंततः कह सकते हैं की मनुष्य का जन्म एवं विकास प्रकृति की संरक्षण में हुआ। लेकिन मनुष्य अपनी जिज्ञासा और लगातार बढ़ते विकासक्रम के स्वर्णिम स्तरों में बौद्धिक और शारीरिक रूप से सबल बना। और उसने प्रकृति से अपने आप को पृथक्करण कर प्रकृति का उपभोग करने जैसी बड़ी भूल कर दी।
उपभोक्तावादी विचारधारा से लबरेज़ इंसान प्रकृति के जल, वायु, भूमि, गगन के चहुंमुखी ओर से दोहन प्रारंभ कर दिया है। वर्तमान स्थिति यह है की पृथ्वी में यह होने वाला परिवर्तन प्राकृतिक संसाधनों के दृष्टिकोण से प्रतिकूलता की जननी है। जिसका फलित परिणाम विनाश है। पारिस्थितिक तंत्र लगातार बदल रहे हैं और प्रजातियां हमेशा गायब हो रही हैं। क्योंकि, पर्यावरणीय परिस्थितियां बदलती हैं और वे अब जीवित रहने में सक्षम नहीं हैं। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन यह लंबे समय तक होता है। जिससे नई प्रजातियों को विकसित होने और पारिस्थितिक तंत्र को कार्यशील रखने की अनुमति मिलती है। वर्तमान समय में प्रकृति के समस्त स्थल जैसे- वायु, जल, स्थल, समुद्र से लेकर पृथ्वी का गर्भ भी मानवीय अतिक्रमण का शिकार हो रही हैं। यही अतिक्रमण प्रकृति के प्रतिकूल स्थितियों की जननी है। आज से 10 वर्ष पूर्व पाये जाने वाले जीवों की अवस्थिति पृथ्वी पर या तो अल्पता ग्राही है या फिर विलुप्त हो चुकी है। जो वर्तमान के साथ-साथ हम मानवों के भावी पीढ़ियों के लिए खतरें का संकेत है। समय रहते यदि हमने पर्यावरण का दोहन बंद नहीं किया तो निश्चित है की हम भी डायनासोर काल की तरह अतीत बन ही जायेंगे।
ऐसा नहीं है की प्रयास नहीं हो रहे हैं। वर्तमान समय में कुछ गिने चुने नाम है जो जल, जंगल और जमीन की लड़ाई में वास्तविक सिपाही को रूप में लगे हैं। कुछ वैज्ञानिक खोजों के आधार पर, कुछ सार्वजनिक प्रयासों के आधार पर पर्यावरण के संरक्षण में लगे हुए हैं। वहीं पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में एक उदाहरण बड़ा हास्यास्पद लगता है, वह है प्रकृति के संरक्षण को सिर्फ पौधारोपण के ईर्द गिर्द समस्या का हल तलाश करने वाली मानसिकता की, जो वास्तव में फोटो- सेशन तक तो प्रकृति के सुकुमार नजर आते है। लेकिन लाईट, कैमरा और एक्शन की स्थिति जैसे पैकअप की ओर बढ़ती है। वैसे ही अपने वाहनों में बैठ कर वायु प्रदूषण करते घर को निकलते देखा ही जा सकता है। वास्तविक रुप में प्रकृति के संरक्षण के पूर्व हमें प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को कम करने की आवश्यकता है। ऐसा तो बिलकुल भी नहीं है की हम पूर्ण दोहन रोक सकें, लेकिन इस विषयक हम अल्पता ला सकते हैं। लोगों के इसे प्रति जागरूकता भी लाया जा सकता है। 20वीं शताब्दी के मनीषी महात्मा गांधी जी कहते हैं, 'प्रकृति के पास करोड़ों लोगों को खिलाने के लिए अकूत भण्डार है किन्तु एक भी व्यक्ति की तृष्णा मिटाने की सामर्थ्य उसमें नहीं है।' लेकिन हमें हमारी स्थिति और उपभोगता की सीमा निर्धारित करना अनिवार्य शर्तों में से एक हैं। कुछ लोगों में यह भी धारणा है की पर्यावरण प्रदूषण का असर केवल शहरों तक सीमित है। जो स्वीकार्य नहीं है। वास्तव में प्रकृति के असंतुलन का असर पृथ्वी को प्रत्येक निकाय तक हो रहा है। उत्पादकता बढ़ाने के फिराक में रासायनिक खाद का प्रयोग मृदा को मरूथल कर देगी। लेकिन लोग आज भी वर्मी खाद के उपयोग पर विचारशील कम हैं। प्रकृति के संरक्षण के लिए हम सभी को अटल प्रतिज्ञा की आवश्यकता है की हम केवल उतना ही उपभोग करेंगे जो आवश्यक हो। अन्यथा, अतिक्रमण के नीतियों से पूरी पृथ्वी...!! मानव जाति से रहित होते देर कहाँ है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़