(अभिव्यक्ति)
रुको-रुको ये कहानी मेरी है, तो कहानी की शुरुआत भी शुरू से, भा पहले करते हैं। 628ई. के पहले की बात है जब, कुछ नहीं का मतलब भी कुछ नहीं होता था और कुछ नहीं का प्रतीक भी कुछ नहीं था। थोड़े भटक गए क्या, ये कहानी उस उदासीनता का है जिसका लोप होना और होना दोनो महत्वपूर्ण है। जैसे किसी से कोई वस्तु का उधार, फिर वापसी के बाद कुछ नहीं या अशेष की स्थिति की परिभाषा ही नहीं था। लेने देने की बात और मुद्रा का दौर भी आने, दो आने और चार आनो में होता था। जहाँ चार-चारआनें मिलकर पैसों के सैकड़ें को छूते थे। लेकिन पहचाने चार खनकते सिक्कों से होती थी। जोड़-तोड़ का मान यदि निरंक होतो, कटमट के चिन्हों पर गुणा-भाग भी कर लेते थे। गणितीय तार्किकता में सदैव इकाई को नौ अंकों के बाद एक अजीब उदासीनता का बोध होता था। शायद जन्म नहीं था, ना परिभाषा इसलिए वह स्थान रिक्तिकरण से पूर्ण होता था। जब संबंधों में घर की जनसंख्या गिनती में लाई जाती थी, नौ के बाद की संख्या लिखने में थोड़ी कठनाई लिखाई देती थी। इन्ही रिक्तियों को सरल करके एक विद्वान और गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने परिभाषित कर अंक गणित के राह में रंगों को बिखेरा था। सिद्धांतों में उदासीनता, निर्वेद और अनंत के पर्याय के साचें में परिमाण कुछ नहीं का मान रखकर ज्ञान सबमें घोला था। इसके बाद महान गणितज्ञ और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने दशमलव प्रणाली में शून्य का प्रयोग कर चिन्हों में मेरा अंकन एक गोलदार सा गोला मगर बीच से चपटा उकेर कर, दशमलव में प्रायोगिकता का प्रमाण शून्य का मान शून्य जग को बताया था।
फिर संक्रियाओं में अंकन का टंकन सबसे सिर चढ़ बोला। ईकाई दहाई और सैकड़ों में एक के बाद शून्य अर्थात दस का पहाड़ा भी बन उन्नत गणित में नव सृजन का मार्ग खोलने लगा। इसी दौर में कई वैज्ञानिक शोधों को, खोजे जाने के लिए प्रेरणा मिलती गई। प्राणीशास्त्र के माइक्रों, मेक्रो,और डेसी से छोटे घनत्व का मान लेलो, चाहे रासायनिक अभिक्रिया से कार्बन डेटिंग का प्रमाण लेलो। प्रौद्योगिकी की भाषा में शून्य से जन्में कम्प्यूटर के प्राण यानी बाइनरी की भाषा का अभिमान लेलो। हर कहीं शून्य की महत्ता और शून्य की सत्ता है। जोड़ो, तो शून्य, तोड़ो तो शून्य, गुणा करों तो शून्य, भाग में भी शून्यवाद की धारा है। शून्य के बीना तो अधूरा खगोलशास्त्र की बहती अविरल धारा है।
शून्य का के बाद धनात्मक फिर वहीं से ऋणात्मक यानी शून्य ही सारांश रूकने का, शून्य ही आरंभ और शून्य ही अंतर, अंततः शून्य ही अनंत है। शून्य का महत्व भी गज़ब है, रोकड़ के हिसाबों में शून्य, लोगों के लेने देने के जज्बातों में शून्य, गोले के त्रिकोणमितीय के गणना में दो प्रमुखों में से एक शून्य है। कैल्कुलेटर के प्रारंभ में शून्य, अजी एक बात तो बताना भूल ही गया। पानी का हिमांक और गलनांक भी शून्य, मापनी को प्रथमांक में शून्य है।
आप कहेंगे की शून्य की क्या महत्ता, चलो वो भी समझाता हूँ, इंसान गणना वस्तुओं के संग्रहण पद्धति से सीखी, जो कि एक, दो, तीन से शुरू होकर ये संख्याएं अनंत तक जाती हैं। अब शून्य की कल्पना करते हैं की एक ऐसी संख्या है जो है ही नहीं। ये बात शुरुआत में समझनें में थोड़ी कठिन है मगर मुश्किल नहीं। जो चीज़ है ही नहीं उसके लिए एक नंबर क्यों बनाया जाए और अगर बनाया जाएगा तो उससे क्या फर्क पड़ने वाला है? अब रोमन लेखन और गणितीय प्रणाली को समझने का प्रयास करते हैं की उन्हें 1 से 9 तक गिनती पर्याप्त लगी। इसके आगे 10 लिखने के लिए एक नया प्रतीक (x) बना लिया। 100, 1000 सबके लिए नए प्रतीक बनाते चले गए। लेकिन समस्या ये कि आदमी कितने प्रतीक याद रखे। वहीं अगर कोई चीज़ का मान दशमलव में होतो उसके कैसे लिखेंगे? मानकर चलें की 0.5 को प्रतीक चिन्हों में दर्शाने के लिए निर्धारित व्यवस्था ही नहीं था। कहने का तात्पर्य है यदि शून्य का अविष्कार नहीं हुआ होता हो सोचिए क्या हम गणित के साथ, अन्य विज्ञानों में आज इतने समृद्ध हो पाते। शून्य का अविष्कार भारत को विश्वगुरु के बननें की ओर एक योगदान है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़