Saturday, May 21, 2022

रसोई की डगमगाती अर्थव्यवस्था और बढ़ती महंगाई : प्राज/The staggering economy of the kitchen and rising inflation




                          (अभिव्यक्ति
 
अच्छे दिनों के तलाश में रोटी, कपड़ा,मकान रोजगार के ईर्दगिर्द घुमती जिंदगी के इस दौर में मुफलिसी ही सहारा है। सुबह के साथ चढ़ते सूरज से लेकर शाम को समंदर के लहरों के साथ लौटती सूरज की रौशनी के दरमियाँ रोजाना का एक दिन कट ही जाता है। नास्ता,खाना बनाने से लेकर पहला निवाला मुह में जाने तक आम आदमी का गला सुख ही जाता है। खाने के तेल से लेकर, सब्ज़ी-तरकारी के दामों में उच्छाल तो जैसे शेयर मार्केट के बढ़ोतरी के समान दिखाई देते हैं। गाड़ी अगर चालू करने की सोंच ले तो तेवर दिखाते पेट्रोल भाव, टैक्सी करने का ख्याल हो जेब में नोटों की मुफलिसी, बस जायें तो वहीं डीजल के दाम का रोना रोेते कंडक्टर साहब के मुह से दोगुना दाम सुनकर मस्तिष्क सन्न कर देता है। लगता है जैसे अंग्रजो के माफिक, दोगुना लगाना वाली भूमिका का संस्करण अद्यतन होता नजर आता है।
              किसी फिल्मी गलियारे का डॉयलॉग भी आत्मसात करने की मनसा में दोहराते अगर कह भी दें,'जिसकी जरूरतें कम है उसी में दम है।' तो भी रोटी, कपड़ा और रोजगार के पीछे भागा-दौड़ी तो बेतरतीब दिखाई देता है। दैनिक आय से कही ज्यादा व्यय की मार तले घर की सारी अर्थव्यवस्था चौपट दिखाई पड़ती है। शाम को बाजार वैसे तो गुलज़ार रोज ही होता है, लेकिन झोला लिये एक न्यूक्लियर परिवार का मुखिया टमाटर, निबू, आलू, प्याज और कांदे के भाव सूनकर ही चकरा जाता है। जो सस्ती मिली वहीं उठाकर झोला भरने की अवधारणा का पालन करना तो भीड़ में से किसी भी एक व्यक्ति का परम कर्तव्य सा प्रतीत होता है।
              ये हाल जो जनाब, मध्यवर्गीय स्तर में जीवन-यापन करने वालो का हाल है। दिहाड़ियों के विषय में चिंतन छोड़ ही दीजिये। वे तो अपना गुजारा खाली पड़े मर्तबान में पूर्व समय में रखी खाद्यान्न के गंध की यादों को सूँघकर करते हैं। कभी पैसे मिले तो, आनाज का एक-दो दिन का जुगाड़ ही  हो जाता है। वर्ना कभी पेट पर गिला कपड़ा और बच्चों को भूख में खिलता रोते लोरियों के सहारे ही सोना पड़ता है। दूसरी तरह महगाई के मानों अच्छे दिनों की गणना दिन दोगुनी और रात चौगुनी की स्थितियों में है। पानी से लेकर पेट्रोल तक, प्याज, टमाटर से लेकर दलहन तक सभी चीजों के दाम औसतन दो सौ फीसदी बढ़ चुके हैं। कई ऐसे भी उदाहरण है जो जीने से कहीं सस्ती मौत की खरीददारी करने को आमादा हो गए हैं। वे करे भी तो क्या करें? जवाब में सिर्फ बढ़ती महंगाई है। 
               महगाई के साथ-साथ रोजगार से कहीं ज्यादा तो बेरोजगारी में उछाल है। ये स्थिति जहाँ एक ओर समाज की अस्थिरता का उद्योतक है। वहीं दूसरी ओर बढ़ते बेरोजगारी का आलम है की सामाजिक पृष्ठभूमि पर नित्य अपराधों के ग्राफ में प्रतिदिन नवीन रिकार्ड बन रहे हैं। कोई करें भी तो क्या करें? मेरा नाम जोकर फिल्म में लिखे मुकेश जी के बोल, 'जीना यहां, मरना यहाँ। इसके सिवा जाना कहाँ...!!!' वर्तमान परिदृश्य में बड़ा प्रासंगिक लगने लगा है। जिसे भी देखों सबके जुबान पर सिर्फ महंगाई ही नजर आने लगी है। इस दौर में मुर्ग मुसल्लम के सपने टेढ़ी खीर के समान है, भर पेट यदि दो वक्त का खाना मिल रहा तो आप से बड़ा भाग्यशाली कोई और नहीं है। क्योंकि कुछ पेट तो ऐसे हैं जो भूख में जलते हैं, भूख में पलते हैं और भूखे ही सोकर जिंदगी काटते हैं। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़