Tuesday, May 31, 2022

केचुओं के कब्र का नींव है रासायनिक उर्वरक :प्राज / Chemical fertilizer is the foundation of earthworm's grave


                            (चिंतन)


भूमि की उपादेयता उसके मृदा की प्रकार पर निर्भर होती है। मृदा और भूमि में जनसाधारण कोई अंतर नही मानते किन्तु वैज्ञानिक संकीर्ण अंतर को परिभाषित करते हैं। वे उर्वरकता पूर्ण भू-भाग तो मृदा और निचले भाग को मिट्टी या भूमि कहते है। किसी वनस्पति विहीन भूमि पर आप मृदा को प्रथम दृष्टया देख सकते है किन्तु किसी सघन वन में इस प्रकार मृदा नही दिखती क्योंकि वहॉ गिरी हुई पत्तियों के कारण मृदा पृष्ठ आच्छादित रहता है। इसी मृदा पर किसानो के मित्र के भाँति पनपते हैं केचुएँ। इसका वैज्ञानिक नाम लुम्ब्रिसिना है, जो ऐनेलिडा संघ का सदस्य है। इसका जीवन काल एक से दो वर्ष होता है। इसके साथ ही एक वयस्क केंचुआ अस्सी से सौ कोकून प्रतिवर्ष बनाता है। मृदा में लगभग एक फुट की गहराई में मृदा को पलटते, खाते, परिवर्तित करते जीवन बसर करते हैं।
                 भूमि या खेत खलिहानों में सड़ी पत्ती, बीज, छोटे कीड़ों के डिंभ, अंडे को खाकर जीवन निर्वाह करने वाला यह जीव मिट्टी में अप्रत्याशित रूप से इनका डाईजेस्ट करता है। इन पदार्थों को ग्रहण करने के लिए केंचुए को मिट्टी या मृदा निगल लाजमी है। निरंतर मिट्टी के भीतर बिल बनाकर रहने वाले इन जीवों का बिल कभी कभी छह या सात फुट की गहराई तक चले जाते हैं। वर्षा के दिनों में जब बिल पानी से भर जाते हैं, केंचुए बाहर निकल आते हैं। मिट्टी की उर्वरकता को बढ़ाने वाले इन जीवों का बिल बनाने का तरीका रोचक है। ये कहीं भी मिट्टी खाना प्रारंम्भ करते हैं और सिर को अंदर घुसेड़ते हुए मिट्टी खाते जाते हैं। मिट्टी के अंदर जो पोषक वस्तुएँ होती हैं उन्हें इनकी आँतें ग्रहण कर लेती हैं। शेष मिट्टी मलद्वारा से बाहर निकलती जाती हैं। यह पूरी प्रक्रिया को हम वर्म कास्टिंग कहते हैं।
                       डारविन ने अनुसार, एक एकड़ में 10,000 से ऊपर केंचुए रहते हैं। ये केंचुए एक वर्ष में 14 से 18 टन, या 400 से 500 घन मिट्टी पृथ्वी के नीचे से लाकर सतह पर एकत्रित कर देते हैं। इससे मृदा की सतह 1/5 इंच ऊंची हो जाती है। लेकिन रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग ने मृदा सतह के पारिस्थितिकी को बेहद संघर्षपूर्ण बना दिया है। एक ओर केचुए मर रहे हैं और दूसरी ओर रासायनिक खाद के प्रयोग से कुपरिणाम से लोग गंभीर बीमारियों की जद में आ रहे हैं। यहीं नहीं भूमि की उर्वरा शक्ति भी क्षीण होती जा रही है। खाद्यान्न, सब्जियां, फल आदि उत्पादों का स्वाद भी अब नैसर्गिक शेष नहीं है। जहरीले खाद के कुप्रभाव का असर है की, पर्यावरण के कई पारिस्थितिक चक्रों का विलोपन गया है। जो भावी समय में गंभीर परिणाम की ओर अग्रसर हैं।

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़