(संयम)
संयम,अपनी बिखरी शक्ति को एक निश्चित दिशा देना है। लक्ष्य निर्धारित होते ही ऐसे पदार्थ और व्यक्ति निरर्थक लगने लगते हैं,जो लक्ष्य प्राप्ति के सहायक नहीं होते,बल्कि बाधक होते हैं । इस सन्दर्भ में की जानेवाली सतत् विचार प्रक्रिया सहज संयम का कारण बनती है। संयम का अर्थ है सदा सचेत रहना कि अन्तस्थल में क्या घट रहा है । अविवेकी व्यक्ति संयम पर भाषण दे सकता है, संयम की मिठास भी नहीं चख सकता है।जबकि यह मिठास आँवले की मिठास की तरह पुष्टिकारक तथा रोगों का निवारण करने वाली हुआ करती है। संयम और नियंत्रण की ओर परिभाषित करते संत कबीर दास जी की पंक्ति से प्राथम्यता का प्रयास करूँगा। वे कहते हैं की -
शब्द सम्हारे बोलिए,शब्द के हाथ न पाँव।
एक शब्द औषधि करे, एक करे घाव।।
कबीर के इन पंक्तियों में दो बोधात्मक पर्याय मिलते हैं। जैसे शब्दों का प्रयोग और कैसे शब्दों के प्रयोजन से उसकी गरिमा बदलती है। जैसे कबीर जी कहते हैं, शब्दों का प्रयोग संभलकर करना चाहिए। शब्दों के ना हाथ होते हैं और पैर, लेकिन शब्दों को कहने की उद्देशिका निर्धारित करती है की वह शब्द अमृत के समान है या घाव करेंगा।
इसे और विस्तृत रूप में समझने का प्रयास करें तो, शब्दों के प्रयोग का अत्मज्ञान आधारित है। आपके विवेक और मानसिक स्थिरता के चलते जितना कहना है, जिससे कहना है, जिसके लिए कहना है, यह सम्पूर्ण प्रायोगिकता का सटिक विश्लेषण आपका संयम है। आचार्य चाणक्य के चाणक्य नीति में संयम को लेकर विविध स्तरण और नियमों के पालन की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। ऐसा तो बिलकुल नहीं है की हमने सोचा और सफलता मिल जाती है। प्रत्येक सफलता के पीछे प्रस्ताव, परिचय, परिश्रम, पूनर्राभ्यास और परिणाम निहित रहते हैं। ये पांच स्तंभ ही निर्धारित करते हैं की आप लक्ष्य के प्रति कितने सजग है। यदि परिणाम सफलता है तो निश्चित ही संयमित हो कर प्रयास किया है। इस तर्क में ध्यान देने योग्य यह भी बिंदु विचारणीय है की जितने बड़े लक्ष्य का निर्धारण आप करते हैं। उतना ही अधिक संयमित होना आवश्यक है। मन की चंचलता और संयम को तोड़ने में कारगर व्यावहारिक तत्वों की ओर इंगित करते तुलसीदास जी करते है-
काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान।
तौ लौं पण्डित मूरखौं, तुलसी एक समान।।
तुलसी जी, लक्ष्य के प्राप्ति में संयम को विस्मृत करने वाले कारकों को बताते हैं कि, मन में यदि काम, क्रोध, मद और लोभ की प्रचंड ज्वाला के लपटों में अच्छे-अच्छे विद्वान पथभ्रष्ट हो जाते हैं।
वास्तव में संयम के बीना मनुष्य लक्ष्य के लिए उद्देशित तो हो सकता है। लेकिन सफलता तभी मिलेगी। जब वह संयमित और लक्ष्य के लिए पूर्ण न्याय करेगा। वर्तमान परिदृश्य में खास कर युवाओं के साथ यही स्थिति निर्मित हो रहा है। वे सुख तो चाहते हैं और अच्छे कल की कल्पना भी करते हैं। भौतिकवाद के हर स्वरों पर अपना अनुराग चाहते हैं, लेकिन सफलता के स्वाद से पहले थोड़ा आराम चाहते हैं। विरोध के नाम पर चिल्लाना तो आता है। लेकिन वास्तविक धरातल पर कदमताल करने से गुरेज़ करते हैं। संभव है युवाओं को जागना होगा। मन की मरीचिका के शोषण का शिकार होने के बजाय, संयम के मशाल से बेमिसाल कल की नींव आज रखना होगा।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़