(शांति)
शांति, वह शून्य भाव का मानकीकरण है जो निर्बांधता और अवरोध मुक्त होता है। जैसे जैविक और भौतिक विविधताओं से परिपूर्ण यह मानवीय समाज भी अपने -अपने हिसाब से शांति को परिभाषित करते हैं। कोई हिंसात्मक विचारों से पृथक तो, कई हिंसा के बल पर शांति स्थापित करना चाहते है। आपको हो सकता है मेरी बातों में भ्रमकता का लेपन लगेगा। आप कहेंगे हिंसा के साथ कैसी शांति स्थापना संभव है और ऐसे चाह रखेने वालों तो शांति के संस्थापक नहीं भय निर्मित करने वाला कहना ज्यादा उचित है? वास्तव में मैं उस स्थिति के संदर्भ में इंगित करना चाहता हूँ। जो अपने आप को शांतिदूत तो कहते हैं और विशाल युद्धक हथियारों के निर्माणकर्ताओं में उनका नाम शुमार होता है।
एक दार्शनिक के रूप में देखें तो मन वचन और कर्म किसी भी स्थिति में हिंसा नहीं करना वास्तव में शांति है। शांति के वैचारिक मतों में सबसे बड़ा आदर्श है की स्वयं शांत रहें, दूसरे को भी शांत रहने दे और दूसरों की शांति में खलल का प्रयास कताई ना करें। कुछ ऐसे भी व्यक्ति विशेष होते हैं जिन्हें शांति तो प्रिय होती है मगर क्या वे वास्तव में शांत है? यह एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है। परिवार, कुल, कुम्बा, ग्राम, शहर और राज्य के लिए शांति की निर्बाधआपूर्ति की सुनिश्चितता वैसे तो नेतृत्व के वैचारिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है। एक व्यक्ति यदि शांति के लिए प्रयास करता है। तो निश्चय है की उसके अनुयायी भी वहीं पालन करेंगे।
दल, संगठन, एवं पंथ की बात निकली तो मुझे अनायास ही कुछ पंथ एवं धर्म की ओर ध्यानाकर्षण हुआ। जिन्हें नाम से सत्य, शांति और सहजता के जीवन का पर्याय कहलाना लक्ष्य है, आत्मसात करना उद्देश्य है। लेकिन उन पंथों, धर्मों और विचारधारा के लोगों में एक विचित्र से वैचारिक मतभेद उनके प्रवर्तक और अनुयायी में प्रदर्शित होता है। जैसे यदि कभी उनके संत यदि कहीं ऊपर से देखते होंगे तो, अपने लोगों, प्रशंसकों, अनुयायी की हरकतों से खून के आँसू जरूर निकलते होंगे।
किसी के प्रति द्वेष के बजाय प्रेम, ईष्या के जगह प्रशंसा का पालन होना आवश्यक है। वास्तव में सामाजिक पृष्ठभूमि पर होने वाले कई संघर्ष शांति की व्यापक साम्राज्य को छिन्न-भिन्न करने के लिए व्यापक है। खासकर, यदि आपके मन में भौतिक लोभता का निवास है तो निश्चय है की कहीं ना कहीं शांति के मनोदशा में डोपिंग होना प्रारंभ हो गया होगा। वास्तव में व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास शांति के धरातल पर ही संभव है। इसीलिए हमें यथासंभव शांति के सान्निध्य में रहने का प्रयास करना चाहिए। हमारी संस्कृति में तो पृथ्वी से लेकर समस्त अंतरिक्ष की शांति के लिए प्रार्थना की गई है। हमें उसी संस्कृति को समृद्ध करना है। शनैः-शनै: ही सहीं लेकिन वैश्विक पटल पर लोगों को जागृत होना पड़ेगा। जिसका प्राथम्य हम अपने आप से करें। जैसे बूंद-बूंद से घड़ा परिपूर्ण होता है, ठीक वैसे ही जन-जन से राष्ट्र का कल्प है। विरोध के स्थान पर, निर्वेद, निष्पक्ष और निर्बांध हो कर प्राणवायु की तरह बनने का प्रयास करें।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़