Saturday, April 30, 2022

मेरा घर अब मकान लगने लगा है : प्राज / My house is now starting to look like a building.


                      (परिदृश्य)

बुढ़े बरगद की तरह एक बुढ़ा अपने घर के आँगन में घर के प्रवेश द्वार के पास प्लास्टिक की कुर्सी लिए शांत बैठा सोंच रहा था। मन:पटल पर बच्चों के किलकारियां, इसी गर्मी के दौर पर आंगन के ऊपर तार से लटके करेले के लताओं के निचे हसते खेलते परिवार जिसमें दादा-दादी, चाचा-चाची, बड़े पापा-बड़ी मम्मी और मम्मी पाप के साथ आधे दर्जन बच्चों की पलटन थी। इसी गर्मी के मौसम में अमरईया से चुराए इमली के भरी दोपहरी में चुपके-चुपके बच्चों के द्वारा ईमली का लाटा कुटा जाता था। खट्टी ईमली, मिर्च और नाम के सौंध में सिलबट्टे में कुटकर लाटा तैयार किया जाता है। तेज धूप को चिढ़ाते बच्चों के चटकारों के बीच बड़े चाव से सब इमलिया लाटा खाते थे। कभी बड़ी मां के डांट-फटकार, कभी दादी की दुलार, कभी चाची के घर-घर वाले खेल में मैडम जी बनकर मेहमान बनकर आना कभी चाचू के फचफटिया में बैठ पूरे गांव की सैर, कभी पापा के तीखे तेवरों में अनुशासन सीखना। कभी दादा के संग मिलकर बचपने के खेल में रोमांच का भर उठना। कभी मिश्री सी बड़ी माँ की बोली, कभी दादी भी कहानी सुनाते- सुनाते इतना भीनी की आखें भी पानी-पानी हो लेती थी। कभी एक बिस्तरे में पूरे शैतानो की टोली सो लेते थे। बचपना, जवानी फिर यहां से व्यवसायीकरण के दौड़-धूप भी हो लिया करते थे। सबसे साथ बैठकर टीवी में संडे को शक्तिमान और प्रतिदिन रात को रामायण के दर्शन कर लिया करते थे।
            खतों के दौर में डाकिया चाचा को सभी ने खूब सताया था। कभी डाकिया चाचा ने गुस्सा नहीं किया। लेकिन हमें लगता था हमने चाचा के खूब दौड़ाया है। वो सायकिल पर आगे-आगे, हमारी टोली पैदल, कभी मम्मी चिट्ठी पढ़कर रोती-बिलखती बतलाती थी, कोई गुजर गया है। फिर पीली छुही पूरे घर के हाशिये में लिपा जाता था। दादी कहती थी ऐसा करना चाहिए। इससे घर की शुद्धि होती है। खतों के दौर में डाकिया चाचा को सभी ने खूब सताया था। कभी डाकिया चाचा ने गुस्सा नहीं किया। लेकिन हमें लगता था हमने चाचा के खूब दौड़ाया है। वो सायकिल पर आगे-आगे, हमारी टोली पैदल, कभी मम्मी चिट्ठी पढ़कर रोती-बिलखती बतलाती थी, कोई गुजर गया है। फिर पीली छुही पूरे घर के हाशिये में लिपा जाता था। दादी कहती थी ऐसा करना चाहिए। इससे घर की शुद्धि होती है। कभी चिट्ठी प्यारा संदेशा लाती घर में खुशहाली का महौल बन जाता था। घर के पृथक स्थलों में हर सदस्यों का नियमानुसार, समयानुसार बैठना, उठना होता था। कुछ समय के बाद जीवन की विविध अद्यतनों में एक बड़ा परिवर्तन हुआ। यह था मोबाइल,इंटरनेट फिर सोशलमीडिया के नये -नये कलेवर का संगठनात्मक सेवाओं का उपभोग लोगों के बीच ऐसे परोसा की इसके वशीभूत होकर, हम आपसी स्नेह के सुगंधित पुष्पों को अपने ही पैरों से रौंदा है।
              ऐसे ही विचारों मंचन के बीच फोन की घंटी बजी। वाट्सएप पर विडियो कॉल था। जो उस बुढ़े व्यक्ति के बेटे का था। बेटे को विडियो कॉल को काँपती-थरथराती उँगलियों से फोन उठाया। बेटे ने विडियो कॉल में बताया की 'आपकी पोती का बर्थडे है। विश कर दीजिये पापा..!!!' 
        मुस्कुराते हुए वह बुढ़ा बोला 'जींती रहो बेटी..!! पुरे परिवार का सुख मिले।' कुछ कहना चाहते थे। मगर बेटे ने वक्त के तकाजे के साथ कॉल कट कर दिया। वह बुढ़ा फिर से मुरुझुराहट में पूराने पलों में अपने घर की रौनक को याद कर रहा था। आँखें जो पोती को देखकर खिले थे। फिर से वह करुणा के सागर में उतर गए।
                मन की उलझनों के बीच यकायक आखों के सामने अंधेरा सा हुआ। उस बुढ़े शक्स ने सोचा खड़ा होकर अपनी हालत में सुधार किया जावे। जैसे ही शरीर सीधे होने की मुद्रा में हुआ। चक्कर खाकर वह वृद्ध वहीं गीर पड़ा। आंगन की बढ़ती धूप के साथ, आखों के सामने अंधेरा बढ़ने लगा। मन में फिर से एक बार संयुक्त परिवार को देखने की लालसा में अदम्य दर्द को हृदय में महसूस करता, लगभग छटपटाने की मुद्रा में पहुँच गया। मन के मन:पटल पर जीवन के सारे सुखद- दूखद अनुभवों का छायाचित्र दिखाई देने लगा। गले में प्यास का अनुभव.....!! हृदय में वेदना....!! आँखों में अंधकार....!!!! और पैरों में फड़कने की हरकत और बढ़ता तेज धूप शरीर को गर्माहट की पराकाष्ठा की ओर ले जाने के शीर्षोपरांत वह बुढ़ा श्वास के टूटने की स्थिति के साथ कहने लगा-  'विराने के कारण मेरा घर अब मकान होने लगा है।'
         थोड़ी देर के अकड़न के बाद सब शांत मानों सारी प्रक्रियाएं निर्बाध हों गई हो।   अब इस वक्त वह वृद्ध अपने घर से अन्यत्र शांत और अनंत सफेदी लिए एक निर्जल जगह पर था। सफेदी के इस विशाल क्षेत्र पर कोई नहीं था। वह अपने आपको तरो-ताजा महसूस कर रहा था। उसके मन में जगह को लेकर कई सवाल पनप रहे थे। वह सोंच रहा था कि अभी तो मैं प्यास से तड़प रहा था। तेज धूप थी। मेरे मकान पर अकेले मैं था। अचानक ऐसा क्या हुआ की सारे दर्द, वेदनाओं का भवंर ही समाप्त हो गया। वह उस जगह से तेजी से भागने लगा, इधर-उधर भागता गया। लेकिन ना कोई मोड़, ना कोई रास्ता, चारो ओर केवल सफेदी का समयांतर स्थल ही था।
           बहुत देर तक इधर-उधर जाने के बाद समझ आया की वह मृत्यु के शैय्या पर है। और यह स्थल अनंत शून्य की स्थिति है। जहाँ शरीर नहीं केवल आत्म अपने शीर्ष शेष पर है। संयुक्त पारिवारिक संबंधों के बीच रहने वाला वह व्यक्ति अपने वृद्धावस्था के क्षणों में अकेला रह गया। अनंत शून्य के बाहर मृत शरीर को देखने वाला कोई नहीं था। सिर्फ ईंट गारे और सीमेंट से बने रंगीन घर में, एक भी कोलाहल की ध्वनि नहीं। भला हो उस सब्जी वाले का जो रोज शाम को वापसी के समय सब्जी छोड़ने आता था। आंगन में बदहवास पड़े वृद्ध  के पास पहुंचा, हिलाने-डुलाने से समझ आया की शरीर में जान नहीं है। फिर क्या था लोगों का मजमा लगते देर ना लगी। सभी इस भीड़ में लाश को देखते, ताकते रहे। कई तरह की बातें करते दिखे। किसी ने शहर में रहने वाले वृद्ध के परिजनों को सम्पर्क किया। बोले प्रातःकाल से पूर्व पहुंचेगें। किसी ने दया मर कर गमछे से लाश को ढ़क दिया। शव लेकिन अभी भी आँगन में पड़ा। इस इंतजार में था की भीड़ में कोई अपना तो होगा। कोई तो मेरा ऐसा सगा होगा जो मुझे मेरे घर के अंदर तक ले जाये। मानवता के शुष्कता का एक कारण यह भी की बड़े घरवाले हैं साहब कुछ इधर-उधर हो गया तो बड़ी कार्रवाई करा देंगे। रात्रि में पंचों और सरपंच ने शव को कमरे में रखने के लिए छोड़ दिया और घर को बाहर से ताला जड़ दिया गया। सुबह जब तक कोई नहीं आ जाता तब तक का इँतजार करते हैं। कहते सभी ने अपने पैंदे सरका लिए, सुबह घरवाले पहुचें तब जाकर अंतिम संस्कार के कार्य पूर्ण हुए। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

बहुतेरे विचारकों से नहीं अपितु स्व समीक्षा से धरातल है : प्राज / Not from many thinkers but from self review


                          (बुद्धिमत्ता


यह दौर चिंता का नहीं चिंतन का है। आपाधापी तो जीवन के अावश्यक अवयवों में से एक है। इसके साथ ही एक वृहद चुनौती की जन्म हुआ है। जिससे हमें दो चार होना पड़ रहा है। वर्तमान दौर में विभिन्न विचारों, विचारधाराओं के बीत संघर्ष है। कुछ शांति से जीवन को रंजित करना चाहते हैं। जो लोगों में निर्वाद, विमोह और स्थिरांक की ओर खिंचतान कर रहे हैं। जिनमें रक्षात्मक के अंकुरित स्वरों के साथ निर्विरोधिता का पर्याय पिरोने का प्रयास है। जैसे सभी जो हो रहा है, जो होगा वह अपरिभाषित शक्ति के कारण संभव है, जिसका परिणाम और अवयव चर भी वहीं है। जिनका परमार्थ परम शून्य है।
           वहीं कुछ ऐसे भी विचारधाराओं के विचारक, वितरक है जों रक्षात्मक या निर्बाधता से पृथक खलल की भूमिका को प्रमुख समझते हैं। जिनका उद्देश्य विरोध, तर्क, कुतर्क एवं विरोधाभास को प्रधान मानक मीन मेख निकालने का प्रयास करते रहते हैं। वहीं यह विचारधारा संघर्ष को जन्म देता है। यहां पर संघर्ष के जन्म में रक्षात्मक के बजाय आक्रामकता को प्रधान स्वर के अनुसरण करते हैं।
         इन बेतरतीब टकराव के बीच इन संघर्षों के लाभांश तलाश करते लोगों की कमी भी नहीं है। जो हल्की छीटाकाशी को बड़ी रार में तब्दील करने में कटु शब्दों के बाणों से वर्षा करते हैं। उद्देश्य केवल स्व मनोरथ को साध्य करना होता है। लेकिन प्रदर्शन ऐसे जैसे मानों बड़े पांडित्यपूर्ण तर्क रख रहे हों। 
       विभिन्न चकाचौंध कर देने वाले विचारधाराओं के बीच यदि आपको अपना सामर्थ्य, वास्तविक उद्देश्य की तलाश है, तो आपको बौद्धिक रूप से सुदृढ़ होना आवश्यक है। आपको तर्कों से पृथक साक्ष्य की तलाश अनुसंधान से करना होगा। यह प्रयास अवश्य ही आपको वास्तविक बोधिसत्व की ओर ले जायेगा। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

स्वतंत्रता का पर्याय नहीं की दूसरे के अधिकारों पर अतिक्रमण हो : प्राज / Freedom is not synonymous with encroachment on the rights of others.


                           (अधिकार)


हमारे संविधान के भाग 3 में (अनुच्छेद 12-35 तक) में मौलिक अधिकारों का विवरण है। संविधान के भाग 3 को ‘भारत का मैग्नाकार्टा’ की संज्ञा दी गई है। ‘मैग्नाकार्टा' से तात्पर्य है उन अधिकारों का वह प्रपत्र है, जिसे इंग्लैंड के किंग जॉन द्वारा 1215 में सामंतों के दबाव में जारी किया गया था। यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित पहला लिखित प्रपत्र था। 26 जनवरी 1950 के ऐतिहासिक दिवस से हम सभी को अपने मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। लेकिन क्या प्रायिकता है की जो अधिकार हमें प्राप्त हैं। उन्हें हम सभी वास्तविक रूप में जानते हैं। कुछ ऐसे भी वर्ग हैं जो आज भी अधिकारोम के अज्ञातवास में जीवन यापन कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर ऐसे समूहों या झुंड कह लिजीए जिन्हें अपने अधिकारों के बारे में इतना पता है की वे अधिकारों के आड़ में कानून से सांवैधानिक सुरक्षा के कल्पना के साथ-साथ अपने अधिकारों का दुरूपयोग करने से बाज नहीं आते हैं। संविधान द्वारा मूल रूप से सात मूल अधिकार प्रदान किए गए थे- समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म, संस्कृति एवं शिक्षा की स्वतंत्रता का अधिकार, संपत्ति का अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार। हालांकि, संपत्ति के अधिकार को 1978 में 44वें संशोधन द्वारा संविधान के तृतीय भाग से हटा दिया गया था।
                समानता के अधिकारों के संदर्भ में तर्कों का एक सैलाब मेरे मन में उद्भेदन की स्थिति में है। जिस आपके समक्ष रखने की कोशिश कर रहा हूँ। समानता का अधिकार जहाँ न्यायिक सुरक्षा और समानता प्रदान करता है। वहीं कुछ वर्गों को जाति, धर्म, पंथ इत्यादि की विशेष अधिकारों से नवाजा गया। जिससे जाति सूचक शब्दों में यदि कोई व्यक्ति फसता है कार्रवाई का प्रावधान है। लेकिन यदि मान कर चलें यदि कोई घटना ऐसी घटित ही नहीं हुआ हो। और छद्म प्रार्थी बनकर यदि कोई वर्ग विशेष व्यक्ति किसी अन्य वर्ग विशेष पर अवक्षेपण करता है तो साक्ष्यों के अपारदर्शी के भाव में भी लाभ प्रार्थी वर्ग को हो सकता है। सार्वजनिक स्थलों पर जाति, लिंग, धर्म, मूल वंश के आधार पर भेदभाव वर्जित है। लेकिन क्या सामान्य व्यवहारों में भी जाति विशेष भेदभाव की परिभाषा पृथक किया जा सकता है? यह एक बड़ा प्रश्न है। अस्पृश्यता के आचरण में अर्थ दंड का प्रावधान तो है, लेकिन अस्पृश्यता के बहाने अपने आप को शोषित दिखलाने वाले के लिए क्या प्रावधान भी होना आवश्यक है।
         अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। लोकतंत्र जनता के लिए, जनता के द्वारा और जनता के लिए सरकार है। अभिव्यक्ति का यह अधिकार हमें आलोचना करने का अधिकार देता है और राज्य को ठीक से काम करने के लिए कहता है और इसके लिए बाध्य है। अभिव्यक्ति की आजादी हमें सिर्फ अस्तित्व से ज्यादा कुछ देती है, यह हमें गरिमा के साथ जीने का कारण देती है। यह हमें एक सामाजिक प्राणी बनाता है। फ्रीडम ऑफ एक्स्प्रेस पर विचार रखते हुए हर्बर्ट हूवर कहते हैं की, 'यह एक विरोधाभास है कि हर तानाशाह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीढ़ी पर चढ़ गया है। सत्ता प्राप्त करने के तुरंत बाद प्रत्येक तानाशाह ने अपने स्वयं के अलावा सभी स्वतंत्र भाषणों को दबा दिया है।' कहीं ना कही प्रेस की स्वतंत्रता पर सवाल उठाने का प्रयास अपने विचार में हुवर ने अंकन किया है। प्राण और दैहिक स्‍वतंत्रता का संरक्षण, शिक्षा का अधिकर, कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण, इनमें से कुछ अधिकार राज्‍य की सुरक्षा, विदेशी राष्ट्रों के साथ भिन्‍नतापूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्‍यवस्‍था, शालीनता और नैतिकता के अधीन दिए जाते हैं। दैहिक स्वतंत्रता का तात्पर्य यह भी नहीं की अश्लील और नग्नता पूरक वस्त्रों को पहना जाये। विशेष रूप से जब स्वतंत्रता के संबंध में बात आती है तो, लोग फ्रीडम ऑफ़ स्पीच के आड़ में अपनी सीमा भूल जाते हैं। और दूसरे के समान अधिकारों का हननकर्ता अवश्य ही बन जाते हैं। प्रत्येक कानून का दुरुपयोग हो सकता है, किन्तु प्रशासन करने वाले यदि दुरुपयोग करे तो यह खतरनाक हो सकता है। अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार व्यापक है। इसमें सरकार की कटुतम आलोचना का अधिकार है, किन्तु देशद्रोह का अधिकार नहीं है। इसके बावजूद हर आलोचना को देशद्रोह बताकर मुकदमा चलाना किसी भी तरह उचित नहीं माना जा सकता है।
           शोषण के विरुद्ध अधिकारों की संतति अनुच्छेद (23-24) के अंतर्गत निम्न अधिकार वर्णित हैं। जिसमें मानव और दुर्व्‍यापार और बालश्रम का प्रतिषेध, कारखानों आदि में 14 वर्ष तक बालकों के नियोजन का प्रतिषेध, किसी भी प्रकार का शारीरिक या मानसिक शोषण प्रतिषेध का पर्याय रखा गया है। इसे एक उदाहरणार्थ समझने का प्रयास करते हैं कि किसी व्यवसायी स्थल पर 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को कार्य करने की मनाही है। यहां तक आप सहमत होंगे। ठीक ऐसे ही उन टेलीविजनों के लिए तैयार होने वाले सीरियल्स में काम करने वाले बाल- कलाकारों के विषय में क्या विचार हैं। वो भी तो एक प्रकार से एक मजदूरी के समान ही है। ऐसे कला के निखार का नाम देकर मेरे मत को खंडन देने का प्रयास ना करें।
                  वर्तमान समय में धर्म के नाम पर सामाजिक पारिस्थितिकी में संघर्षों का दौर है। जहाँ कम जनसंख्या वाले धर्मों में संख्या बढ़ाने के लिए धर्म-परिवर्तन, बहुविवाह, लव-जेहाद तक की स्थिति पारदर्शित है। वहीं दूसरी ओर अपने-अपने धर्मों की वर्चस्वता के लिए दूसरे धर्म के लोगों में अपना आतंक, सहयोग के नाम पर शोषण की नीति निंदनीय है। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो प्रचार, धार्मिक आयोजनों में भव्यता इसलिए प्रायोजित करते हैं ताकि दूसरे बाहुल्य धर्म के लोगों को नीचा दिखाया जा सके। जबकी धर्म की स्वतंत्रता सभी धर्मों को समान मानने का प्रयास है।
            संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार में किसी भी वर्ग के नागरिकों को अपनी संस्‍कृति सुरक्षित रखने, भाषा या लिपि बचाए रखने का अधिकार है। अल्‍पसंख्‍यक-वर्गों के हितों का संरक्षण का अधिकार है। शिक्षा संस्‍थाओं की स्‍थापना और प्रशासन करने का अल्‍पसंख्‍यक-वर्गों का अधिकार है। इसके साथ संवैधानिक उपचारों का अधिकार हम सभी को प्राप्त है। हमारा यह दायित्व बनता है की हम हमारे अधिकारों का संरक्षण तो अवश्य ही करें। लेकिन इसके साथ अन्य लोगों के अधिकार क्षेत्रों में तनिक भी अतिक्रमण होने से रोकना भी हमारा कर्तव्य है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

गुजरते रोज का एक दिन और समाज सेवा : प्राज / A day of passing and social service


                            (कर्तव्य

आपके रोज का एक दिन उदाहरणार्थ उठा लिजीए। देखिए की उस दिन के दैनंदनी में क्या-क्या रूटीन हम फॉलो करते हैं। संभवतः जीवन के धूप में बाल सफेद करने के पश्चात् हमे अनुभव के प्रगाढ़ शीर्ष पर बैठे हित-अहित का उचित परख रखेंगे। लेकिन जीवन का नाम है सतत् चलना। कई ऐसे उदाहरण अवश्य मिलेंगे जो समाज को बदलने, समाज की सेवा के लिए लालायित रहते हैं। यत्र-तत्र प्रयासों के पश्चात् सोचतें हैं की हमें समाज सेवा करने का मौका नहीं मिला। समाज सेवा के अवसरों के संबंध में वार्तालाप के पूर्व अखबारी समाज सेवकों के बारे में अवश्य बताना चाहूँगा। जो समाज सेवा के नाम पर फोटो खिचाओं, थोड़ा और मुस्कुराओ परम्परा के धनि लोग है। ये ऐसे प्राणियों का झुंड है जो समाज सेवा के लिए तभी लालायित होते हैं। जब समाचारपत्र, न्यूज़ के कैमरे के सामने समाज सेवा को पूरी इमानदारी से चित्रित करने का प्रयास करते हैं। और जैसे ही लाईट, कैमरा  और एक्शन हट जाता है। फिर ये मैंगो पीपल्स याना आम आदमी के भाती हो जाते हैं।
          यदि आप इसे समाज सेवा समझने लगे, तो निश्चित है आपके हाथों समाज सेवा का गलत सिलेबस लगा है। कुछ फुटकर समाज सेवी भी होते हैं। ये छोटे-छोटे गांवों/कस्बों में निवास करते हैं। जहाँ लाईट, कैमरा एक्शन तो होता नहीं, लेकिन अपने अभिनय का बखान संवाददाताओं को मिठाई के डीबिया के साथ प्रकाशन के आशातीत लहरों में जीवन व्यतीत करते हैं। अगर ऐसा कोई भी लक्षण आपके अंदर पनपने को आमादा हो, तो कृपया समाज सेवा से दूर ही रहें। वास्तव में हम कई लक्ष्यों के पीछे भागते हैं। पहले रोटी, कपड़ा और मकान फिर ये पूरी हो जाये तो महत्वकांक्षा की दूकान अगर यहां से भी मन उठने की प्रक्रिया में मनुष्य समाज के तथाकथित समाज सेवकों के भूमिका में आ जाता है। वास्तव में यह प्रक्रिया सफेदपोश कॉलर्स में लगे कुछ भ्रष्ट छींटों से अपने आप को बचाने का प्रयास है। जिससे लोगों में अपनी अलग छवी तैयार करने के कवायद से लोगों के बीच जल्दी पापुलर होने के लिए सरल मार्ग समाज सेवा को मनाना जाता है। ऊपर से यह सॉफ्ट टार्गेट भी है। तो निश्चित है की इस क्षेत्र में अतिक्रमण होना तो लाजमी है।
              सेवा क्षेत्र की वास्तविकताओं को यदि तलाश करने का मन है तो निश्चय ही समाज सेवा के लिए कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं है। जो कार्य आप अभी कर रहे हैं। उस पर न्यायपूर्ण, निष्ठा से समस्त कार्यों को कीजिये। संभव है की आपके द्वारा किये जाने वाले प्रयासों से लाभांश आम लोगों को मिले। समाज की सेवा के लिए कोई विशेष क्षेत्र की आवश्यकता नहीं होता है। हम जिस भी कार्य में हैं। उसमें अपना सौ फीसदी यदि देने का प्रयास करें तो इससे अच्छा और कुछ भी नहीं हो सकता है। वर्तमान समय में चाहे वह कार्यलय निजी या शासकीय हो कहीं ना कहीं भ्रष्टाचार का प्रसार हो गया है। लोग अपने इन्ही भ्रष्टाचारों के आरोपों से खूद को बरी साबित करने के फिराक में, दिखावटी समाज कल्याण के कार्यों को प्रदर्शित करते हैं। जबकी वास्तव में सेवा क्षेत्र में उसके द्वारा किये जाने वाले कार्य के लिए उसका पूरा समर्पण समाज के विभिन्न वर्गों को पारितोषिक के रूप में सुखद फल देने वाला प्रयास प्रदर्शित होता।
           हम जिस सेवा क्षेत्र से जुड़े हैं। हो सकता है उस सेवा क्षेत्र में शक्ल सफाईकर्मी, चपरासी, क्लर्क, क्लास अधिकारी, डायरेक्टर जो भी हो। अपने कर्तव्य, अपने दायित्वों का निर्वाह न्यायोचित समय और पूरे लग्न से करते हैं। तो इसका लाभ समाज को अवश्य ही मिलता है। सोचिये की आपके कारण आपका सेवा क्षेत्र कितना तीव्रता से कार्य कर सकता है। कितनी आप अपने कार्यों के प्रति निष्ठावान है। जितने लोग आप से जुड़े हो सकता है उनसे आपको कोई कॉम्पलिमेंट ना मिले, कोई प्रमाण पत्र ना मिले, आपकी तस्वीर अखबार में ना छपे, लेकिन आप ने जो सेवाकालीन तत्परता दिखलाया है। निश्चय ही आगामी कार्मिकों के लिए यह एक प्रेरणास्रोत के रूप में आदर्श बने। यह सच्ची समाज सेवा से कम भी नहीं है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

राजिम का जिला मुख्यालय बनने की ओर बढ़ते कदम : प्राज/ Moving towards becoming the district headquarters of Rajim


 
                          (परिदृश्य)

वर्तमान में खैरागढ़ के जिला की घोषणा के साथ यह भी सुगबुगाहट है की छत्तीसगढ़ के पूर्व अतीत के समरूप छत्तीस गढ़ों की तरह छत्तीस जिलों के विकसित होने के विकल्प की ओर अग्रसर है। वर्तमान राजिम तहसील के एक लाख चौरासी हजार लोगों में उम्मीद की किरण तो है, लेकिन शकां पिछले 22वर्षों से जिला बनने के दौड़ में शामिल होते हुए भी जिला गठन नहीं होना भी चिंता की लकीरें खींच रहा हैं। विख्यात संत कवि पवन दीवान जी का सपना रहा है की राजिम को जिला बनाया जावे। क्षेत्र के लोगों में जिला बनाने के लिए मांग एक बार पून: देखने को मिल रहा है। सोशलमीडिया से लेकर दैनिक अखबारों तक विभिन्न दलीलें दी जा रही हैं।
         एक जिला के पर्याय को पहले हम समझने का प्रयास करते हैं। जिला जो प्रशासनिक इकाई है। जिला एक ऐसा शब्द है जो लैटिन जिले से आता है,जो कि डिस्टृंगरे 'अलग' शब्द में इसका मूल है। इस अवधारणा का उपयोग परिसीमन को नाम देने के लिए किया जाता है जो प्रशासन, सार्वजनिक समारोह और राजनीतिक और नागरिक अधिकारों को व्यवस्थित करने के लिए एक क्षेत्रीय क्षेत्र को वश में करने की अनुमति देता है। वहीं कॉलिंस डिक्शनरी के अनुसार जिले की परिभाषा का अनुसरण करते हैं, 'एक जिला एक शहर या देश का एक क्षेत्र है जिसे प्रशासन के उद्देश्य के लिए आधिकारिक सीमाएं दी गई हैं।' इसी के साथ सामाजिक विज्ञान के मद्देनज़र देंखें तो जिला, एक जिला भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था की एक इकाई है। इसका प्रबंधन स्थानीय सरकार द्वारा किया जाता है। जिलों को आगे उपखंडों में विभाजित किया गया है जिन्हें तहसील कहा जाता है। जिला प्रशासन के लिए जिला कलेक्टर या जिला मजिस्ट्रेट जिम्मेदार होता है।'
             यदि सारांश के रूप में बात करें तो, जिला निर्माण या गठन के कई लाभ हैं। जैसे उस स्थानीय क्षेत्र में प्रशासनिक पकड़ मजबूत और तीव्रता से सरकारी, सार्वजनिक, सहकारी, निजी एवं गैर शासकीय कार्यों को बल मिलता है। साथ ही साथ शासनाधीन समस्त अधिकारियों की जनता से पहुँच एवं संवाद सरल होता है। पहले जहाँ क्षेत्रफल को प्रायिकता में रखकर जिले का निर्माण किया जाता था। वहीं अब जिला मुख्यालय को केन्द्र के बीच स्थापित कर दूरी को समानता देने का प्रयास किया जाता है।
          हम बात कर रहे हैं राजिम को यदि जिला मुख्यालय के लिए नामित किया जाता है तो क्या वह केन्द्रीय मानकता के आधारभूत मॉडल पर खरा उतर पायेगा? जैसे राजिम से लगे समस्त सीमा स्पर्शीय क्षेत्र अभनपुर, आरंग, छुरा, मगरलोड को संयुक्त कर यदि जिला का निर्माण संभव होता है तो यह प्रयाग स्थली राजिम अवश्य ही भावी समय में समृद्धि एवं प्रशासनिक नजरिये से आदर्श जिले के रुप में अवश्य ही प्रकाशमान होगा।
        जिले के गठन के संदर्भ में जिले के भौगोलिक विशेषता से लेकर, व्यापार, पर्यटन, आय के संसाधन, जनसंख्या, लोगों के जिले तक की पहुँच की सुगमता पर विचार किया जाता है। जिसके सभी मानकों पर राजिम पूर्ण दक्ष है। जिले के गठन में राजनीति इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। प्रयाग/संगम स्थली राजिम का क्षेत्र राष्ट्रीय एवं वैश्विक पटल पर अपनी अलग छवि, संस्कृति एवं सर्व धर्म-सदभावना का प्रतीक है। लोगों की आशाओं के बीच यदि राजनीति गलियारे से जिले की मांग की पूरजोर कोशिश सम्पन्नता को प्राप्त करे तो निश्चय ही संत कवि पवन दीवान का आशीर्वाद हम सभी को प्राप्त होगा। 


लेखक
पुखराज प्राज 
छत्तीसगढ़

मिलकर सकारात्मकता के वायुमंडल का निर्माण करें : प्राज / Build an atmosphere of positivity together


                            (सहकार्य
  


किसी यत्न में यदि अकेला सारा दारोमदार पूर्ण करने की भरता है, तो निश्चय है की वह पराक्रमी हैं। लेकिन नेतृत्व करने में असफल है। क्योंकि अकेले किसी कार्य के पीछे जितना श्रम वह प्रणोदन करता है। उसके परितोष के रूप में प्राप्त फल विवर्तनिक हो जाता है। जिसमें या तो श्रम से अधिक या श्रम से बहुत ज्यादा कम परिमाण निकलेंगे। हम जब आदिम थे, तभी से ये गुर तो सीख ही लिए थे कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है। लेकिन क्या करें...!! हमारी मानसिकता भी जब तक छोड़ेंगे नहीं तब तक छोड़ेंगे नहीं के साधना से लिप्त है। दूसरी ओर लोगों में आपसी मतभेदों की तीव्र धारा प्रवाहित है, जो एक दूसरे के तटों का क्षरण इतनी तेजी से कर रही है की दूरियों का जैसे सैलाब आ गया है। भाई-भाई तक में वैमनस्य व्यावहारिकता के फलन लगता है की जैसे वर्तमान में यदि सागर मंथन हो तो, पहले आरक्षण के रोस्टर से लेकर, जाति और धर्म के समीकरण तेज हो जायेंगे। उसके ऊपर से सवर्ण-दलित का मुद्दा तो जैसे सागर मंथन पर ब्रेकर बनने को आमादा होगा।
          लेकिन प्रश्न उठता है की हम तो समूह, समुदाय, संगठन और एकता के सारे पर्याय और समस्त अध्यायों से परिचित हैं। हमारा तो विकास भी हमारे एकता के कारण संभव हुआ है। फिर ये कैसे संभव है की हम अपनी प्राथमिक शक्ति केन्द्र यानी विविधता में एकता से कैसे मुह फेर सकते हैं। हां, लेकिन यह भी है की संघर्षों के लिए हम इकट्ठे होते देर नहीं लगाते हैं। कभी फलॉ के आनर्स, कभी बैठक, कभी जातिवाद की मधुशाला में बैठकर दूसरे जाति वो नीचता के चरम पर रखकर तौलना भी कम थोड़ी है। वैसे अलगाववाद के मसरुफ़ियत की बात निकली है तो उन मौन स्वरों को भी याद कर लेना आवश्यक है। जो इनके संघर्षों के दोहरी चक्की के पाटे में गेहूं में घुन की तरह पिस गए। संभवतः उनका उद्देश्य संबंधों को प्रगाढ़ करने का रहा होगा। कुछ तो संत ऐसे भी हुए जो एकता के आँच पर रहे, और उनके बीत जाने के बाद उनको ही नवीन जाति, धर्म का मॉडल बनाकर पेश कर दिया गया। एकता, आपसी सहयोग और सौहार्द्रता के बातों पर अक्सर मौन अधर और चंचलता भरे मष्तिष्क में अपना-अपना बेनिफिट देखकर ही लोगों को चैन आता है।
           ऐसा भी नहीं है की पूरी पृथ्वी को वैमनस्यता का गढ़ कह दें। आज भी इस पृथ्वी में ऐसे मनुष्य प्राणियों की प्रजातियां पाई जाती हैं। जो सबके साथ, सबके लिए, सभी के लाभ की बात करते हैं। किसी भी संगठन, संघ या समूह के पीछे एक छद्म नेतृत्व होता है। जो उस संगठन के बोनमैरो के समरूप काम करता है। यह उसकी का दृष्टिकोण होता है की भावी समय में समूह या हमारा संगठन किस ऊँचाई पर होता है। अर्रे...!! अर्रे...!!! आप कहीं ये तो नहीं सोचने लग गए की कुछ पंक्तियों के ऊपर तो बड़ा अवक्षेपण मार रहे थे, यकायक हृदय परिवर्तन के संदर्भ में कोई 'चाय-पानी के परम्परा का निर्वाह तो नहीं होगा गया। तो मैं साफ कर दूँ की ऐसा बिलकुल भी नहीं। विरोधाभास की स्थिति में भी, उन अवयवों, चरों, व्यक्तियों एवं स्थितियों के कारण सकारात्मक परिवर्तन होते हैं। ऐसे ही कुशल नेतृत्वकर्ता के मानसिक सृजन के रोड मैप पर चलकर संगठन फलीभूत होता है।
            हम सभी में एक नेतृत्वकर्ता अवश्य होता है। हम हमारे समाज को किस दिशा की ओर ले जाना चाहते हैं। क्योंकि अभी का जो समय है वह ओज, तेज और क्रोध का है। जहाँ लोगों में एक दूसरे की प्रशंसात्मक विचारों के अलावा छीटाकशी, ताने, चुगलखोरी और निदा के अपार संभवना है। लेकिन ऐसा नहीं है की इस प्रस्थितियों में परिवर्तन का स्वर भरना संभव नहीं है। बिलकुल संभव है, इसके लिए हमें मिलकर प्रयास करना होगा। प्रत्येक नकारात्मक स्वरों का खंडन प्रशंसात्मक और सकरात्मकता से देना है। जिस समाज, समूह, जाति, क्षेत्र, कुल में हम रहते हैं। वहां सकरात्मकता का अद्वितीय वायुमंडल तैयार करने की जिम्मेदारी आपकी और मेरी है। फिर देखिए सामाजिक संरचना वाली इस पृथ्वी पर संगठनात्मक एकता और सौहार्द्र का भावी कल स्वर्णीम अक्षरों से वैभवशाली, खुशहाल और परस्पर सहयोगी समाज के उदाहरण स्वरूप हमारी संज्ञा दिया जायेगा। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

सोशलमीडिया पर गुटर-गूँ करते दो प्रेमी कबूतर : प्राज


                           (अभिव्यक्ति


  मानवीय जीवन काल का बसंतऋतू यानी किशोरावस्था होता है। जहाँ शारीरिक भौतिक एवं बौद्धिक परिवर्तन के साथ मन की चंचलता का प्रादुर्भाव होता है। एस. ए. कोर्टिस ने अपने शब्दों में किशोरावस्था के आयु निर्धारण के संदर्भ तर्क देते हुए परिभाषित करते हुए कहा, 'किशोरावस्था औसतन 12 वर्ष से 18 वर्ष की आयु तक ही है, जिसके अंतर्गत कामांगों का विकास शारीरिक काम विशेषताओं का प्रकटीकरण लाता हैं।' यानी आयु के बढ़ने के साथ-साथ शारिरीक परिवर्तन तेजी से होते हैं। जैसे आवाज, दृष्टिकोण और अपरिपक्व चंचलता का परिवर्तन देखने को मिलता है। 
             हैडो कमेटी रिपोर्ट इंग्लैंड के द्वारा जारी शोध के सार के रूप में वे कहते हैं कि,'ग्यारह अथवा बारह वर्ष की आयु में बालकों की नसों में ज्वार उठना शुरू होता है, इसे किशोरावस्था के नाम से जाना जाता है। अगर इस ज्वार का चढ़ाव के समय ही उपयोग कर लिया जाये तथा इसकी शक्ति एवं धारा के साथ-साथ नई यात्रा शुरू कर दी जाये, तो सफलता प्राप्त की जा सकती हैं। वहीं मानसिक तीव्रता के मनोविज्ञान पर केन्द्रित विचार पर स्टेनले हाॅल कहते हैं कि, 'किशोरोवस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान तथा विरोध की अवस्था है।' किशोरावस्था वह अवस्था है जब तरूण अपने आप को, अपने फैसलों को, स्वतंत्रता के विचारों को अवरोध मुक्त पाना चाहता है। इस अवस्था में यदि किसी वरिष्ठ के द्वारा प्रतिबंध लगाना प्रारंभ हो, तो किशोरावस्था से गुजर रहे युवक/युवती का सबसे बड़ा दुश्मन उस प्रतिबंध लगाने वाले के अतिरिक्त कोई और नहीं हो सकता है। ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन के द्वारा किशोरावस्था की आयु निर्धारित करते कहतें हैं कि,'किशोरावस्था प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में वह काल है, जो बाल्यावस्था के अंत में प्रारंभ होता है और प्रौढ़ावास्था के प्रारंभ में समाप्त होता हैं।' वहीं क्रो एवं क्रो के अनुसार,' किशोर ही वर्तमान की शक्ति व भावी आशा को प्रस्तुत करता हैं।'
             सोचिये की ऐसे ही अल्हड़, बहकते हुए किशोर युवक/युवती को वयस्क वाले ख्वाब किशोर अवस्था में दिख जाये तो क्या होगा? किशोरावस्था में कदम रखते ही लड़के-लड़कियों में शारीरिक, मानसिक और व्यवहारिक बदलाव आने शुरू हो जाते हैं। वह अपने माता-पिता को खुलकर बताने में शर्म महसूस करते हैं और कई बार गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं। पोर्न वीडियो देखने लगते हैं और उससे प्रेरित होकर गलत धारणाएं भी बना लेते हैं। इससे वे शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार होने लगते हैं। वर्ष 2019 में अमर उजाला के हवाले से प्रकाशित एक रिसर्च की रिपोर्ट के अनुसार, '80 प्रतिशत किशोर-किशोरियां अंतरंग(पोर्न) सामग्री इंटरनेट से देखते हैं। जिससे वे मानसिक और शारीरिक रूप से हो रहे बीमार हो रहे हैं। कोई समलैंगिक हो गया, तो किसी का पढ़ाई में नहीं लगता मन, किसी को दोगुनी उम्र वाले से शादी करनी है।' यह रिपोर्ट तब आई थी जब कोविड-19 का दौर प्रारंभ नहीं हुआ था।
           कोविड-19 के पश्चात् शिक्षा व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए ऑनलाइन शिक्षा व्यवस्था विकल्प के रूप में उभरा, यह वहीं दौर था की एक पालक अपने बच्चे के शिक्षा के लिए उत्पन्न हो रहे अवरोधों को पार करने के लिए घर में जमा धान, यहाँ तक की आभुषणों को गिरवी रखकर बच्चे के लिए मोबाइल फोन खरिदा गया। प्रारंभिक दौर में यह सब ठीक चला लेकिन गौर-फरमाएगा की यह वहीं स्थिति है जहाँ बच्चों के हाथ में मोबाइल और इंटरनेट कनेक्शन एक साथ मिल जाना शेर के मुह खून लगने के समान है। रोजाना 3-4 घंटे आन लाइन क्लास के बहाने सोशलमीडिया में भी गुटर-गूँ हो जाये तो पालकों को कहाँ पता चलता है। वहीं मक्खन की तरह विपरीत लिंग के व्यक्ति के प्रति आकर्षण फिसलने पर मजबूर कर देता है।
        कहीं लगातार इंटरनेट के उपयोग से किशोर एडिक्टेड हो रहे हैं। चाहे बात आनलाइन गेमिंग, आनलाइन चैट्स, वर्चुअल गॉशिप, आनलाइन 18+ नग्नता परोसते विडियो, पोर्नोग्राफी इत्यादि से इंटरनेट से आसानी से बच्चे जुड़ जाते हैं। इससे बौधिक रूप से विक्षिप्तता एवं शारीरिक आकर्षण इतना तेज हो जाता है कि क्या गलत कर रहे हैं और क्या सहीं सारी बातें शुन्य हो जाती है। 



लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

विरोध का उद्देश्य केवल नीचा दिखाना, सार्थक नहीं : प्राज / The purpose of protest is only to humiliate, not be meaningful


                             (नीति

घर के चार दीवारी के निर्माण के अवसर पर दो पड़ोसी आपस में भीड़ पड़े थे। किसी ने थोड़ा ईंट के खिसकने का मसला उठाया तो, जवाबी जुबानी कार्रवाई में तर्कों का पहाड़ दे मारा था। दो-चार लोगों के समझाने बुझाने के बाद ही ये झड़प थोड़ा कम ही प्रतीत हो रहा था। लेकिन ज्वार-भाटें वाली स्थिति शांति विस्थापन के प्रमुख कारकों में प्रदर्शित हो रहा था। दोनो पक्ष वैसे एक दूसरे पर चढ़ पड़े थे। कुछ तो ऐसे जिन्हें कुछ पता ही नहीं फिर भी नेतृत्व के छाँव में वास्तविकता के नीव खूद ही बना रहे थे। पारिवारिक नीति,नियंत्रण के प्रति अखण्ड प्रतिज्ञा का पूरा प्रदर्शन दिखला रहे थे। समझाने बुझाने के बेला के उपरांत, थोड़ा महौल शांत हो गया। दो पड़ोसी में लगभग तत्कालिक मैत्री फिर से हो गया। कुछ दिनों बात ये मसला, विवाद और प्रतिवाद को दोनो पड़ोसी भुला बैठे। एकता का पाठ पढ़ा बैठे।
            यह तो छोट से भू-भाग के अंदर की स्थिति है। लेकिन सोचिए जिन्होंने पूरे किसी राज्य/राष्ट्र के लिए नीति का निर्माण के लिए क्या उन्होंने अपने निर्धारित मानकों पर तर्कों के साथ विचार-विमर्श नहीं किया होगा? भौतिक शरीर के जब पांच उँगलियाँ आपस में समान नहीं है। तो किसी राष्ट्र विशेष के लोगों में एक सोच, एक लक्ष्य और एक पंथ की भावना का होना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। पुरातन काल में राजशाही शासन व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेकते अब प्रजातंत्र/लोकतंत्र की जड़ें भी मजबूत हो गए हैं। लेकिन क्या अपने ही लोकतंत्र के प्रति सवाल उठाना किस हद तक सही है? ये एक विचारणीय प्रश्न है। वैसे तो मेरा मानने ये भी है की स्वतंत्र और स्वच्छ लोकतंत्र में प्रश्नोत्तर होने चाहिए। लेकिन नीति निर्देशक तत्व और नीतियों के प्रति निष्ठा रखना आवश्यक है। कुछ बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों में एक बड़ी बात कॉमन की वे विरोध इसलिए कर रहे हैं क्योंकि, विरोध करना आवश्यक है और इससे सामने वाले पक्ष के ऊपर अवक्षेपण करने का संसाधन बना लिया जाता है। ऐसा तो बिलकुल नहीं है कि नीतियों में कमी हो तो उनमें सुधार नहीं किया जा सकता है। केवल और केवल उसके लिए इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।
          राज्य/राष्ट्र के नीतियों का सर्वप्रथम अंतःकरण से आत्मसात् करना आवश्यक है। ऐसा तो नहीं है की किसी समय पर जो नीति लागू हों। वे सदा के लिए चिरस्थायी हों। संभव है समय के मांग के अनुरूप अमूलचूल परिवर्तन होना तो लाजमी है। लेकिन केवल इस बात से विरोध करना, अवक्षेपण करना की इससे वैचारिक पृथक्करण को बढ़ावा मिलेगा तो निश्चय है की आप से बड़ा मुर्ख कोई और नहीं है। अपने राष्ट्र के प्रति समर्पण को प्रदर्शित करती प्रसून जोशी जी अपनी पंक्ति कहती है, 'मैं रहूँ या ना रहूँ..... यह भारत रहना चाहिए।' ऐसे ही किसी भी राष्ट्र के नागरिक की प्राथमिकता राष्ट्र सर्वोपरि हो। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

लोभ के गुरुत्व से बाहर है अनंत संतोष की आकाशगंगा : प्राज/ The galaxy of infinite contentment is out of the gravity of greed


                    (अर्थ की उपयोगिता)

कुछेक ख्वाहिशें होतीं तो सोच भी लेता, यहाँ तो रोज़ एक ख्वाहिश पनपती है। कुछ पुरानी ख्वाहिशें दफ्न होने के फिराक़ में सयानी होने का स्वांग करती हैं। कभी भागती दौड़ती जिंदगी, कभी अपनों की जरूरतें, कभी जरूरतों की जरूरतें, दिन भर इन्ही ख्यालों में खोया करते हैं। कभी कुछ पाने की खुशी, कभी कुछ खोने का गम और कभी ना कर पाने के मसलन, मलाल करते हैं। मैं बात कर रहा हूँ। उस आम आदमी की जो रोजमर्रा के जरूरतों की पूर्ति के लिए नित्य जद्दोजहद करता है। रोज के किसी भी दिन को निकाल कर देखें तो, केवल अर्थ और अर्थ के पीछे भागता, उछलता, गिरता, पड़ता दिखाई देता है।
        सुबह की खिड़की खोलती सूरज की किरणों से लेकर शाम के बंद होते कपाट तक के सफर में केवल एक ही फलसफा लिखा है। वह है अर्थार्जन एवं अपनी जीवन शैली को सुखद बनाने के पर्याय में केवल भौतिक लोभी होकर, अंधभक्त के भांति केवल अर्थ की याचना, कमाना और मांगना ही जीवन बना बैठा है। वास्तविक उद्देश्यों के प्रति तो बैर की झड़ी लगी पड़ी है। शायद इसलिए उपस्करों, मोहरों के खोह तलाशते मोहरे से बनने की ललक सबको बड़ी है।
          लगातार फैलते महत्वाकांक्षाओं के बीच आय वाली चादर कहीं ना कहीं छोटी पड़ने को आमादा है। क्योंकि वर्तमान में मानवों के आय से अधिक व्यय का इरादा थोड़ा ज्यादा है। धन के अर्जन के समीकरण में दिहाड़ी, मासिक वेतन भोगी या व्यावसायिक कोई भी वर्ग के क्यों ना हो? व्यय के गुणा-भाग में अक्सर विफल हो रहे हैं। सफल वही हैं जिनका खूद के व्यय पर नियंत्रण है और जरूरतें कम है। वर्ना प्रत्येक दूसरा व्यक्ति किसी ना किसी कर्ज में डुबा है। संचय की प्रणाली में कुछ तो ऐसे भी हैं जो दूसरों के हक के कब्रिस्तान पर अपना वैभवशाली मकान ढ़ो रहे हैं। शायद इन्ही विचारधाराओं से लिप्त लोगों के कारण भ्रष्टाचारियों की जनसंख्या में दिन-रात वृद्धि हो रहे हैं। कहीं कालाबाज़ारी, कहीं जमाखोरी, कहीं धांधली, कहीं चपत के सूत्रों को प्रासंगिक करने के लिए तंतर-मंतर हो रहे हैं।
        बहरहाल, धन के अर्जन से अधिक ज्ञान का अर्जन करना आवश्यक है। क्योंकि श्रम से अर्जित धन की उपयोगिता अपने भौतिक सुख से कहीं अधिक लाभ बौधिक सुख भोगने में है।अमेरिकी भूविज्ञानी और प्रिंसटन विश्वविद्यालय में भूविज्ञान के प्रोफेसर हैरी हेस ने समुद्र तल के फैलाव की खोज की। उन्ही की भांति हमें संतोष के धरातल की खोज करना आवश्यक है। तब जाकर हम धन के वास्तविक उपयोगिता और भोग को समझ पायेंगे। अंतिम कड़ियों में कहूँ तो धन की उपयोगिता के सार्थकता का प्रमाण यह है की उसका उपयोग राष्ट्र के हित में किया जावे, लोक कल्याण के लिए किया जावे, समाज के उत्थान के लिए किया जावे। इसी भावना से उत्प्रोत होकर संत कबीर दास जी कहते हैं-

'साँई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय।।'


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

वन्यजीवों पर मंडराता संकट और जलवायु परिवर्तन से निर्मित परिस्थितियाँ : प्राज/ Crisis on wildlife and the conditions created by climate change


                          (अभिव्यक्ति


बचपन में जब भी कहानी सुनने की जीद दादी जी से करता था। तो संभवतः वे एक पंक्ति से कहानी का प्राथम्य करती थीं। छत्तीसगढ़ में प्रायः हर लोक-कथाकार बतौर भूमिका निम्नांकित पक्तियों को दीर्घ कथा प्रस्तुत करने के पूर्व बोलतें हैं-

कथा आय न कंथली,जरे पेट के अंतड़ी।
चार गोड़ के मिरगा मरे , कोनो खावे न पिये।।

भावार्थ में कथा और कंथली यानी दीर्घ कहानी और लघुकथा से पर्याय है। इसमें वाचक अपनी वेदना, अनुभवों के कहानियों के बहाने पिरोते जीवन का यथार्थ अमृत परोसने का प्रयास करते हैं। इसी कल्पना में अकाल सूखे के दिनों को संज्ञान देते हुए। मृग मृत्यु के संदर्भ में सभी को शोकाकुल घोषित करते हुए। कहानी प्रारंभ होता था। जहाँ इस पंक्ति में वन्य जीव, मनुष्य और उनके बीच संबंधों के विषय में लाक्षणिक प्रदर्शन शब्दों के माध्यम से मिलता है। जहाँ मृग के (वन्य जीव) के मृत्यु पर सभी लोगों को दुख हुआ है। क्योंकि उस समय मनुष्य वन्यजीव के साथ जंगलों का वासी था। वन्य संपदा, वन्य जीव को अपने परिवार के अंग के रूप में मानते थे। जैसे किसी सदस्य के परिवार में स्वास्थ्य खराब हो जाने से पूरा परिवार एक होकर उसकी तीमारदारी करते है। ठीक वैसे ही वन्यजीव में किसी के मृत्यु पर शोक मनुष्यों बिछुड़ने के समान होता था। आधुनिकता की उँगलियाँ पकड़े वर्तमान का मनुष्यों के लिए वन्यजीवों अब शत्रु की भाँति प्रतीत होते हैं।
              वन्य जीवों और मानवों के संघर्षों के गाथाओं से इतर एक अलग ही राग अलापते संदेश आपको सुपुर्द करता हूँ। पत्रिका में प्रकाशित 2020/9अगस्त की रिपोर्ट बताती है की आज भी शहडोल(मध्यप्रदेश) में बैगा समुदाय को लोगों का वन्य जीवों लगाव एवं संबंध अद्वितीय है। वहाँ प्रकृति और वन्यजीवों से सीधे जुड़ाव रखने वाली गौर पूजा की परंपरा दशकों से आज भी चली आ रही है। आदिवासी समुदाय गौर पूजा में सात जानवरों की सात साल पूजा करते हैं। इसमें पूरा गांव प्रकृति और जानवरों की रक्षा का वचन लेता है। इसे सात साल लगातार मनाने का नियम हैं। बच्चों से लेकर युवा भी इसमें शामिल होते हैं। फसल धान का स्वागत करने के साथ माटी के वन्यजीव तैयार करते हैं। सातवें साल व्रत पूरा होने पर पूरा गांव जुटता हैं और विशेष अनुष्ठान के साथ चांद को भी भोग अर्पित करते हैं। मगरमच्छ, कछुआ से लेकर गाय, तोता और पोडकी तक को शामिल किया जाता है। बैगा समुदाय में सबसे ज्यादा इसे माना जाता है। सातवें साल धनुष और तीर की पूजा कर तीन में रोटी लगाकर चांद की ओर चलाकर अर्पित करते हैं। शहडोल के बैगा बाहुल्य गांव के बुजुर्ग बताते हैं इसे सात साल लगातार मनाने का नियम है।
           हम वन्य जीवों की बात कर रहे हैं। ऐसे में वनों की बात नहीं हो तो फिर क्या बात है? वन संपदाओं को मनुष्य अपनी निजी मिलकियत समझता है। वे उनका हनन, क्षरण और पतन ऐसे करता है जैसे वो वनों का निर्माण पल में कर लेगा। लेकिन कुछ ऐसे लोगों या कहें समुदाय के लोग पेड़ों/वन को अपने समान जीव मानते हैं। राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिला मुख्यालय से कपासन रोड पर करीब 15 किलोमीटर दूर राज्य राजमार्ग पर मादलदा गांव स्थित है।इस गांव की करीब डेढ़ हजार की आबादी है। गांव के लोग पहाड़ी पर स्थित लोक देवता भगवान देवनारायण में आस्था रखते हैं. ग्रामीणों की मानें तो यहां एक विशेष किस्म के पेड़-पौधे लगे हैं, उनको काटना तो दूर किसी व्यक्ति ने नुकसान भी पहुंचाया तो उसे लोक देवता उसे उसके गुनाहों की सजा देते हैं। यहां धोक के पेड़ लगे हैं। धोक जिसे स्थानीय भाषा में धोकड़ा भी कहा जाता है। पेड़ों की संख्या का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिन में भी इस पहाड़ी पर सूर्य देव के दर्शन नहीं हो पाते। ग्रामीण धोक के पेड़ों को हाथ तक नहीं लगाते। उसी का नतीजा है कि पूरा गांव हरियाली से आच्छादित है। गांव ही नहीं आसपास का पूरा इलाका भी जंगल का रूप ले चुका है।
            अब आप कहेंगे की वन्यजीव, कानन और मानवों के संदर्भ में तो कई अनुसंधान, कई गाथाएँ है। इनका हम पूनर्राध्ययन करके क्या साबित करना चाह रहे हैं। हम अभी व्यक्तियों और पर्यावरण के बीच के पारिस्थितिकी को समझने का प्रयास कर रहे थे। जिस श्रेणी में पर्यावरण पारिस्थितिकी में मनुष्य अलग या भिन्न नहीं है अपितु वह भी पारिस्थितिकी को पूर्ण करने वाला एक चर है।
       वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन वैश्विक रूप से एक बड़ी चुनौती से कम नहीं है। जलवायु परिवर्तन औसत मौसमी दशाओं के पैटर्न में ऐतिहासिक रूप से बदलाव  होने की प्रक्रिया है,जो मानवों सही सभी जीवों के जीवन के लिए प्रतिकूल स्थितियों को जन्म देने वाले कारक के समतुल्य है। सामान्यतः इन बदलावों का अध्ययन पृथ्वी के इतिहास को दीर्घ अवधियों में बाँट कर किया जाता है। जलवायु की दशाओं में यह बदलाव प्राकृतिक भी हो सकता है और मानव के क्रियाकलापों का परिणाम भी। ग्रीनहाउस प्रभाव और वैश्विक तापन को मनुष्य की क्रियाओं का परिणाम माना जा रहा है जो औद्योगिक क्रांति के बाद मनुष्य द्वारा उद्योगों से निःसृत कार्बन डाई आक्साइड आदि गैसों के वायुमण्डल में अधिक मात्रा में बढ़ जाने का परिणाम है।
          तनिक विचार करके देखें की वर्तमान समय में बढ़ते तापक्रम में गर्मी से हमारी क्या हालत होती है। हमारे शरीर के लिए कम से कम दिन में पाँच से सात लीटर पानी की आवश्यकता है। जंगल के पृष्ठभूमि पर पानी के बूंद की कल्पना कीजिये। फिर कल्पना कीजिये की बेजुबान जंगली जानवरों को पानी पीने के लिए कितनी जद्दोजहद करना पड़ता होगा? जंगली जानवर डिहाइड्रेशन के शिकार हो रहे हैं। इसकी वजह से जानवरों के व्यवहार में भी बदलाव हो रहा है। वह प्यास बुझाने के लिए आबादी की ओर रुख कर रहे हैं और बदलते व्यवहार के कारण ‘आसान शिकार’ को निवाला बना रहे हैं। नतीजा मानव वन्य जीव संघर्ष बढ़ने की आशंका और पुख्ता होती जा रही है।
             पर्यावरण से जुड़े फाउंडेशन 'वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर' ने कहा है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण पूरी दुनिया में जीवों और पौधों पर असर पड़ा है। 9 मार्च को जारी अपनी एक रिपोर्ट 'फीलिंग द हीट' में संगठन ने बताया कि मौसम की अतिरेकता से जुड़ी घटनाएं, मसलन- गरम हवा के थपेड़े, सूखा और बाढ़ के कारण जानवरों और पौधों की दुनिया बहुत प्रभावित हो रही है। बढ़ते तापमान के मुताबिक ढलना अभी से ही उनके लिए बहुत मुश्किल साबित हो रहा है।
           जलवायु परिवर्तन से वन्यजीव, पक्षियों एवं वनस्पतियों पर संकट आन पड़ी है। कुछ ऐसे भी हैं जो अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत् है तो कुछ विलुप्त हो रहे हैं। बात करें प्रवासी पक्षियों तो माइग्रेशन एक वास्तविक सच्चाई है। पशु, पक्षी, समुद्री जीव से लेकर इन्सान सभी प्रवास करते हैं। प्रवास का इतिहास मानव सभ्यता से भी पुराना है। मनुष्य या कोई भी जीव अपने जन्मस्थान को छोड़कर या तो संकट के समय या बेहतर अवसरों की तलाश मे जाता है। पशु पक्षी भोजन और पानी के आभाव में एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं। ये प्रवास मौसमी होते हैं। अधिक गर्मी, सर्दी और बारिश से बचने के लिए पशु-पक्षी प्रवास करते हैं।हम्पबैक व्हैल ने 9,800 किलोमीटर का सफर तय कर दिया, ब्राजील से मैडागास्कर तक । साइबेरियन क्रैन भी काफी लम्बी दूरी तय कर माउंट एवरेस्ट के उपर से उडते हुए एशियाई प्रायद्वीप तक पहुंचते हैं। सर्दियां खत्म होने पर वापस लौट जाते हैं। लेकिन अब जलवायु परिवर्तन के कारण गर्म वातावरण होने लगा है। वर्ष के कैलेंडर में बारिश के महिनों की अल्पता, पृथ्वी के तपन और पिघलते ग्लेशियर खतरे की ओर इशारा कर रहे हैं। विचार करें की कोई पक्षी जो प्रवास के लिए सैकड़ों/हजारो किलोमीटर की यात्रा कर पहुचता है। पानी की कमी और अवातानुकूलित स्थिति के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाने के नाते, प्रजनन, पोषण के कमी के चलते खूद के भावी अस्तित्व बना पाने में अक्षम हो जाता है।
          ठीक ऐसे ही वनभूमि में लगातार मानवीय अतिक्रमण के फलन एक ओर तो वन का विनाश हो रहा है। वहीं दूसरी ओर वन्य जीवों और मानवों के बीच लगातार संघर्ष बढ़ना तो लाजमी है। यूनाइटेड स्टेट्स जियोलॉजिकल सर्वे द्वारा 2007 की समीक्षा में मानव-वन्यजीव संघर्ष को दो संदर्भों में परिभाषित किया गया है; पहला, वन्यजीवों द्वारा की जाने वाली कार्रवाइयां मानव लक्ष्यों यानी जीवन, आजीविका और जीवन-शैली के साथ संघर्ष करती हैं, और दूसरी, मानवीय गतिविधियां जो वन्यजीवों की सुरक्षा और अस्तित्व के लिए खतरा हैं। हालाँकि, दोनों ही मामलों में परिणाम मानवीय प्रतिक्रियाओं द्वारा तय किए जाते हैं।
             लेकिन सवाल उठता है। हमें क्या अधिकार है की हम प्रकृति का दोहन करें? हम प्रकृति से हैं, हम उस प्रकृति का हिस्सा हैं। प्रकृति के प्रत्येक जीव का उतना ही अधिकार है। जितना हमारा प्रकृति पर वर्चस्व है। हमें प्रकृति ने उसे और संवर्धित बनाने के उद्देश्य से बुद्धिजीवी प्राणी के रूप में विकसित किया है। हमारा ध्येय होना चाहिए इस पूरे प्रकृति, पृथ्वी के सर्वात्रिक नियम का हम पालन करें। दोहन के पूर्व उसे होने वाली क्षति का आकलन करना भी हमारा लक्ष्य होना चाहिए। वर्तमान भीषण गर्मी के दौर में हमें बेजुबां जानवरों के लिए प्रयास करना आवश्यक है। अक्सर ये जानवर पानी के कमी से मर जाते हैं। आईये आप और हम मिलकर एक स्वच्छ और संरक्षित धरती के निर्माण में प्रयासरत हों। 


लेखक
पुखराज प्राज 
इको केयर साईंस क्लब,छत्तीसगढ़
(विज्ञान प्रसार, नई दिल्ली से पंजीकृत संस्था)

समरसता के पटरी पर संघर्षों के बीच दौड़ती सामाजिकता की रेल : प्राज / Rail of sociality running between struggles on the track of harmony


                        (समता


हम जिस सामाजिक परिदृश्य में अपने आप को देखते हैं। हम कैसे समाज की कल्पना करते हैं? लोगों में समानता हो, एकता हो, परस्पर सहयोग की भावना हो। यह तो कल्पना मात्र है वास्तविकता के धरातलीय हकीकत तो कुछ और ही कहानी बयान करती है। यहाँ धर्म, जाति, क्षेत्र, रंग, भाषा और अर्थ के आधार पर विभिन्न स्तरों में हम बटे हुए हैं। जहाँ कोई भी पक्ष किसी भी स्तर पर अपने आप को पिछड़ा, दबा हुआ या कमतर समझने की तो सोच ही नहीं सकता है। सवाल वर्चस्व का जो है भाई। एक जो जहाँ लोगों में अपने-अपने पक्षों की विवर्तन का भाव है। वहीं दूसरी ओर दूसरे के पक्ष के प्रति पूर्वाग्रह, ईष्या, द्वेष, दोष और संघर्ष के लिए अपने पक्षों के लोगों को लामबंद करने के लिए आमादा रहता है। विभिन्न पक्षों के रार की आँच में घी का कम भड़काऊ भाषण, सोशलमीडिया और एके-दूके उदाहरण काफी है। ये उदाहरण दोनो वर्गों में वैमनस्यता परोसने के लिए काफी है। किसी के मतों को, किसी के विचारों को आलोचना के कटघरे में खड़ा करके उसकी वैज्ञानिकता के बजाय अस्मिता पर कालिख पोतने का कार्य किया जा रहा है। ऐसा नहीं की किसी मत, विचार का प्रासंगिक होना यकायक नहीं हुआ है। वह विचार पूर्णतः परिशुद्ध हो यह भी संभव नहीं है। समय एक बेहतर मरहम है जो समय के साथ इन विचारों, मतों पर पूनर्विचार और परिवर्तन के अवसरों को जन्म देती है।
                वास्तव में सामाजिक समता या समानता के पर्याय के स्वर तलाशने का प्रयास करते हैं। इसे हम समरसता से इंगित कर सकते हैं। जहाँ सामाजिक समरसता का अर्थ है सामाजिक समानता अर्थात जातिगत भेदभाव एवं अस्पृश्यता का जड़मूल से उन्मूल कर लोगों में परस्पर प्रेम एवं सौहार्द बढ़ाना तथा समाज के सभी वर्गो एवं वर्णो के मध्य एकता स्थापित करना। समरसता का अर्थ है सभी को अपने समान समझना। सृष्टि में सभी मनुष्य एक ही ईश्वर की संतान है और उनमें एक ही चैतन्य विद्यमान है इस बात को हृदय से स्वीकार करना। सामाजिक पृष्ठभूमि पर सभी वर्ग चाहे वे किसी धर्म, पंथ, क्षेत्र या भाषा के हों। उन्हे भी उतने अधिकार है समाज के बीच रहने, बोलने और अपनी अभिव्यक्तियों को स्वतंत्र मानने का, जिससे दूसरे व्यक्ति विशेष के अधिकारों का हनन या अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण ना हो।
             वर्तमान में सबसे बड़ी चुनौती यह भी है की फ्रीडम ऑफ़ स्पीच के बैनर तले लोग यह भूल जाते हैं की कितना कहें, क्या कहें और कैसे कहें? की अन्य के मौलिक अधिकारों के क्षेत्र में अतिक्रमण ना हो। लेकिन सीमा लांघते ही संघर्षों का दौर प्रारंभ हो जाता है। कभी जुलूस, जलसे के आड़ में शक्तिप्रदर्शन के लिए करोड़ों रूपये फूँक दिये जाते हैं। कभी अपनी वर्चस्वता के बखान के लिए पोस्टर-बैनरों और तोरण के सहारे अपनी पैठ मजबुत की जाती है। वास्तविक रूप में देखें तो इन आडम्बरों से आखिर मिलता क्या है? कुछ छुटपहीये लोगों के वाहवाही और बेवज़ह प्रदर्शन के नाम पर कांय-कचर की बेतरतीब आवाजों की गूँज, इसके अलावे थोड़ा सा लोगों के बीच शांत वातावरण के आत्मा पर कोलाहल के टंगियें से वार का मौका। इसके अलावे तो सिर्फ व्यर्थ ही यह प्रदर्शन, रैली दिखाई देते हैं। कुछ लोग इसे मार्केटिंग के ट्रिक्स और पॉपुलर स्टेट्स के मद्देनज़र देखते हैं। हो सकता है उनका नजरिया मार्केटिंग के मद्देनज़र सहीं भी हो। लेकिन समाज कोई बाजारू प्रासंगिकताओं का डम्पिंग यार्ड नहीं की कुछ भी कचरा उड़ेल दिया जाये। 
          कुछ लोगों में प्राचीन ग्रंथों को समझने के बजाय इसलिए विरोध करना अतिआवश्यक समझते हैं क्योंकि उसके रचयिता मेरी जाती से नहीं है। वो मेरे वर्ण का नहीं है। उसकी प्रकृति चाहे जितनी भी सहज, उपयोगी और सहीं क्यों ना हो। मैं विरोध करूँगा...!!!! ऐसे प्रासंगिक विचारों के धनी लोगों के कुत्सित मानसिक ने मनुस्मृति जैसे आदर्श समाज के कल्पना वाले ग्रंथो को इतर रखा है। भारत में वामपंथ, दक्षिणपंथ और अन्य नामधारी पंथ-सुपंथ से संबद्ध राजनीतिक इतिहासकारों की बौद्धिक लापरवाही, शोधकार्य में आलस्यता, निम्नस्तरीय भाषा-ज्ञान, संदिग्ध सत्यनिष्ठा, वैचारिक पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों का एक बढ़िया उदाहरण मनुस्मृति भी है।
         हमें प्रकृति के नियम को अपनाना होगा। प्रकृति कभी किसी भी व्यक्ति में दलित-सवर्ण, उच्च-निच, अस्पृश्य या स्पृश्य, धर्म-अधर्म, पंथ या निरपंथ नहीं तलाशती है। सभी के जीवन के लिए प्राणवायु, खनिज, भोज्य, जीवन के लिए अनुकूल परिस्थिति, निर्धारित पारिस्थितिकी का जाल बुन देती है। फिर हम और आप आपस में बैर पालने वाले कौन होते हैं? हमें सहिष्णुता की पराकाष्ठा के शीर्ष पर पहुँचना होगा। पूर्वाग्रहों की दीवारों को तोड़कर पारदर्शिता और दूरदर्शी स्वच्छंद विचारों का खुले हृदय से स्वागत् कहना होगा। तभी हम हमारे सामाजिक तंत्र में समानता को स्थापित करने में सामर्थ्यवान हो पायेंगे। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

व्यवहार कौशल में शब्दों का चयन बतलाता है स्वभाव : प्राज / The choice of words in behavioral skills tells the nature


                           (संयम)      

'बरगलाने की उसकी आदत नई नहीं है। 
बड़बड़ाने की उसकी चाहत गई नहीं है।'

अपनी इन दो पंक्तियों के साथ आलेख का प्राथम्य करना चाहूंगा। एक परिदृश्य का खाका मन में जो वर्तमान संदर्भ के परिचायक के रूप में तैयार है। उसे आपको सुपुर्दगी करने के लक्ष्य में प्रयासरत हूँ। व्यवाहर शैली की अनिवार्य योग्यता है पहले सुनना, समझना और फिर कहना। लेकिन वर्तमान का अतिमहत्वाकांक्षी मनुष्य समाज पहले कहना,उसके बाद सुनना फिर पछतावे या क्लेश के साथ समझने का प्रयास करता है। सबसे बड़ी भूल में संज्ञानात्मक यदि समझाने का प्रयास करें तो, व्यक्ति अपने आप को अन्य की तुलना में अधिक विकसित और बुद्धिजीवी मानता है। कुछेक तो ऐसे भी हैं। जो अपने आप को सर्वज्ञ और दूसरों की क्षमता को कमतर आँकने की बड़ी गलती करते हैं। संभवतः इसी वैचारिक मतभेद की धारणा के बीच अपनी-अपनी वर्चस्वता के ताल ठोकने वालों में लड़ाईयां प्रयोजित होती है। ये लड़ाई किसी बाहुबल या शस्त्रों से नहीं अपितू पीठ पीछे एक दूसरे के लिए शाब्दिक खाई खीचने की खटाई वाली परम्परा का युद्धस्तर पर प्रदर्शन है। वाणी में संयम और शब्दों के प्रासंगिकता पर आधारित कबीर दास जी के एक दोहे का अनुसरण करें। 

धीरे-धीरे रे मना,धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा,ऋतु आए फल होय।। 

 कबीरदास लोगों को संदेशित करते कहते हैं कि किसी भी कार्य को धीरे धीरे वह संयम भाव से करना चाहिए। संयम व एकाग्रता से किया गया कार्य ही सफल होता है। जिस प्रकार माली सौ-सौ घड़ों से पेड़ों को सींचता है मगर उसके इस प्रकार के परिश्रम से फल की प्राप्ति नहीं होती। ऋतु के आने से ही अर्थात मौसम परिवर्तन से ही पेड़ों पर फल आता है। ठीक ऐसी ही अवधारणा की उपज है व्यक्ति का व्यक्ति के प्रति प्रेम-संबंध। जहाँ यदि संयमित और पारदर्शिता के साथ व्यवहार कौशल की पराकाष्ठा को यदि स्पर्श कर लिया जाये तो जीवन के किसी भी प्रतिकूल अवसर पर आप अकेले नहीं होगें। बजाय अकेले आपके साथ लोगों का हुजूम निकल पड़ेगा। 
               धर्मशास्त्रों में वाणी संयम पर बहुत बल दिया गया है। शब्दों के चयन से लेकर कहने की प्रायोगिकता तक शब्दों के गहरे प्रभाव होते है। वाणी में प्रयोग होने वाले अशुद्धियों के संदर्भ में हमें ज्ञान की समझ देते मनुस्मृति में कहा गया है कि, 


पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः।
असंबद्ध प्रलापश्च वांग्मयं स्याच्चतुर्विधम्।

             अर्थात, वाणी में कठोरता लाना, झूठ बोलना, परनिंदा करना और व्यर्थ बातें बनाना- ये वाणी के चार दोष हैं। इन दोषों से बचने वाला व्यक्ति हमेशा खुशी और संतुष्ट रहता है। किसी भी व्यक्ति के लिए कठोर वचन, मिथ्या, निंदा और फिजूल की बातों से इतर रहना ही मानवीय व्यवहार शैली के लिए उत्तम है।

दोस पराए देखि करि,चला हसंत हसंत। 
अपने याद न आवई,जिनका आदि न अंत।। 

कबीर कहते हैं कि प्राय दोस्त को देखकर हंसना नहीं चाहिए। बल्कि अपने भीतर व्याप्त बुराइयों को देख कर उस पर चिंतन मनन करना चाहिए। अपने बुराइयों को सुधारना चाहिए। किस प्रकार एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के दोष को देख कर हंसता है, मुस्कुराता है। जबकि उसमें खुद बुराइयों का ढेर है, और उसके स्वयं के बुराई का कोई आदि और अंत नहीं है।
          वास्तव में हम ऐसे काल्पनिक मिथ्याचारी बनने की ओर हैं। जो स्वयं को अधिक श्रेष्ठ श्रेणी में गणना करते हैं। जहाँ लोगों में तुलना, द्वेष, भ्रमक विचार इत्यादि की बाँध बनाने में तुले हैं। संभव है की हमारे इसी प्रतिकूल व्यवहार शैली से जनमानस में हम अपना ही अहित कर बैठते हैं। अपनों, गैरों और नव संबंधितों के लिए हमें संयमित व्यवहार का अनुपालन ही उनकी स्मृति में स्थान दे पायेगा। अन्यथा लोग अपने अप्रिय जनों को भूलाने में देर नहीं करते है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

Friday, April 29, 2022

साइबर सेक्युरिटी और प्राइवेसी को लेकर हमारी जागरूकता : प्राज / Our awareness about cyber security and privacy

 
                               (सुरक्षा


मनुष्य जो एक सामाजिक प्राणी है। जो समूह की अवधारणा के प्रति इसलिए सजग रहता है क्योंकि वह उस स्थिति में अपने आप को संरक्षित और सुरक्षित महसूस करता है। सुरक्षा एक 'सुरक्षित' होने की स्थिति है जहां नुकसान या अन्य गैर-वांछनीय परिणामों से संरक्षित होने की स्थिति होती है। जोखिम के स्वीकार्य स्तर को प्राप्त करने के लिए सुरक्षा मान्यता प्राप्त खतरों के नियंत्रण का भी उल्लेख कर सकती है। कहने का तात्पर्य है कि सुरक्षा वह आवरण है जहाँ अपने हितों और अनचाहे परेशानियों से विमुक्त रहता है। वर्तमान समय जो डिजिटल क्रांति का दौर है। जहाँ हम वर्चुअल दुनियाँ, वर्चुअल स्पेश को देख रहे हैं।
           इंटरनेट की वह दुनियाँ जहाँ सब कुछ इंटरनेट में, इंटरनेट के अंदर और इंटरनेट के साथ समाहित है। सूचनाओं के तेज आदान-प्रदान प्रणाली का हम अनुसरण कर रहे हैं। लेकिन इंटरनेट के बेजोड़ देने और क्रांतिकारी परिवर्तन के साथ अपराधों में भी तेजी से परिवर्तन हुआ है। हम बात कर रहे हैं इंटरनेट और इंटरनेट के माध्यम से होने वाले अपराधों के संदर्भ में। पहले के समय में जंग बारूद और बंदूकों के नोक पर लड़े जाते थे। जिसका उद्देश्य और युद्ध के सिद्धांत नियम और दिशानिर्देश हैं जो युद्ध और सैन्य अभियानों के अभ्यास में सच्चाई का प्रतिनिधित्व करते हैं।युद्ध के कोई सार्वभौमिक रूप से सहमत सिद्धांत नहीं हैं। युद्ध के सिद्धांत विभिन्न सैन्य सेवाओं के सैन्य सिद्धांत में बंधे हैं । सिद्धांत, बदले में, सुझाव देता है लेकिन रणनीति और रणनीति को निर्देशित नहीं करता है। पारम्परिक युद्ध के कुछ हद तक अपने नियम होते हैं। लेकिन इंटरनेट में हो रहे वर्चुअल मोड़ पर युद्ध केवल घातक परिणाम और आर्थिक क्षति के ग्राही हैं। हम बात कर रहे हैं साइबर आक्रमण या साइबर हमला एक प्रकार का अपराध है। जो कंप्यूटर के माध्यम से किया जाता है। इसे अंग्रेज़ी भाषा में साइबर अटेक कहते हैं। सामान्यतः साइबर आक्रमण का संचालन अनामक संस्थाओँ या व्यक्तिओं द्वारा महत्त्वपूर्म डाटा की चोरी करने के लिये किया जाता है। साइबर अपराध में साइबर-आतंकवाद भी एक अपराध होता है। जब दो पक्षों, देशों और संस्थाओँं के मध्य साइबर आक्रमण करके एक दूसरे पर आक्रमण होता है, तो उसे साइबर युद्ध कहा जाता है। साइबर हमलों में पहचान की चोरी, धोखाधड़ी, मैलवेयर, स्पैमिंग , वायरस, पासवर्ड की चोरी, प्रणाली घुसपैठ, निजी और सार्वजनिक वेब ब्राउज़र से जानकारी की चोरी इत्यादि शामिल हैं।
       बहरहाल अब आप कहेंगे की साइबर अटैक से हमें क्या नुकसान है। और यदि इतना ही अनुचित है तो इंटरनेट चलाना भी तो बंद नहीं कर सकते हैं? इसका जवाब है। आपको अपने सुरक्षा के प्रति सजग रहना होगा। वास्तव में हम में से बहुत लोग ऐसे भी हैं जो इंटरनेट चलाना तो जानते हैं। लेकिन डिफेंस के मसले पर जीरो बटे सन्नाटे वाली स्थिति में सफर कर रहे हैं। आज भी ऐसे लोगों की तादाद कम नहीं है जो मोबाइल में एप्स के डाऊनलोड से लेकर कई प्राइवेसी राइट्स, इंटरनेट में ऐसे बाटते फिरते हैं। जैसे खैरात बट रही हो। वास्तव में आपको अपनी सुरक्षा के लिए सजग होना पड़ेगा। तब जाकर कहीं हम अपने आप को सुरक्षित महसूस कर पाएंगे। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

नियोजित उद्यमिता से बदल सकते हैं भावी कल की तस्वीर : प्राज / Planned entrepreneurship can change the picture of tomorrow



                                (उद्योग

उद्यमिता और उद्योग की अवधारणा के पूर्व इसके प्राथम्यता के अंकुरण को जानना आवश्यक है। प्राचीन काल से ही मनुष्य वस्तुओं की लेन-देन के लिए विनिमय प्रणाली यानी वस्तु के बदले वस्तु देने की परम्परा का निर्वाह करता रहा है। यह वह दौर रहा जब जनसंख्या कम एवं संसाधन अधिक थे। जिसमें कोई निश्चित भू-भाग या वस्तुओं के निर्माण या व्यवस्था के लिए निश्चित परिमाण नहीं था। सभ्यता के वर्धन के साथ-साथ लोगों में एक निर्धारित भू-भाग, निर्माण की प्रक्रिया में जटिलता और विनिमय वितरण प्रणाली में वस्तु के साथ-साथ, श्रम विक्रय की प्रक्रिया का जन्म हुआ। जहाँ निश्चित समय के लिए निश्चित मात्रा में सामग्री दिया जाने लगा। कहने का तात्पर्य है की इस आधारभूत स्थिति से श्रम का व्यय प्रारंभ हुआ। सभ्यता के और संवर्धित रूप में विभिन्न लोक सुख-सुविधाओं में वृद्धि होती गई। यह वहीं दौर था जब कला,ललितकला, नाट्य, सेवा, रक्षा, एवं विभिन्न क्षेत्रों में श्रम के पारितोषिक के रूप में वस्तु या मुद्रा मानकों का प्रचलन प्रारंभ हुआ। इसी स्थिति से उद्यमी और उद्योग क्षेत्र की स्थापना हुई। कृषि जो मनुष्य का प्राचीन और पारंपरिक उद्योग रहा है। कृषि के अवधारणा से आधारित भोज, वस्त्र, एवं उपकरणों के निर्माण के परिपेक्ष्य परिदृश्य में आए। बात मुद्रा की चली तो मुद्रा के चलन के संबंध में भारत के तर्क आपके सुपुर्द करना मेरा दायित्व भी है। 
           भारत विश्व कि उन प्रथम सभ्यताओं में से है जहाँ सिक्कों का प्रचलन लगभग छठी सदी ईसापूर्व में शुरू हुआ। रुपए शब्द का अर्थ शब्द रूपा से जोड़ा जा सकता है जिसका अर्थ होता है चाँदी। संस्कृत में रूप्यकम् का अर्थ है चाँदी का सिक्का होता है। रुपया शब्द सन् 1540 - 1545 के बीच शेरशाह सूरी के द्वारा जारी किए गए चाँदी के सिक्कों लिए उपयोग में लाया गया। वहीं मुद्रा के संचालन, मुद्रा की उपयोगिता, मुद्रा से किसी क्षेत्र विशेष में प्रशासन के संदर्भ में कई सिद्धांत है। जैसे मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त का प्रतिपादन सबसे पहले 1566 में जीन बोडीन जो एक फ्रेंच अर्थशास्त्री द्वारा किया गया। सन् 1691 में अंग्रेज अर्थशास्त्री जॉन लोक तथा सन् 1752 में डेविड हयूम ने इस सिद्धान्त की व्याख्या की। 20वीं शताब्दी में मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त की व्याख्या इंरविग फिशर मार्शल पीगू और रोबर्टसन आदि अर्थशास्त्रियों आदि ने की।
             कागज का आविष्कार काई लून ने किया। जो चीन के रहने वाले थे। इन्होंने 202 ईपू. हान राजवंस के समय में कागज का आविष्कार किया था। यह बात तो स्पष्ट हो गई की कागज का आविष्कार चीन में हुआ लेकिन चीन के बाद भारत ही वह देश है जहां कागज बनाने और इस्तेमाल किए जाने के प्रमाण मिले। भारत में कागजी मुद्रा का पदार्पण 1770-1800 के बाद माना जाता है। शुरूआत मे बैंक ऑफ बंगाल द्वारा जारी किए गए कागज के नोटो पे केवल एक तरफ ही छपा होता था। बहरहाल औद्योगीकरण के विकास और तीव्र विस्तार से कई सेवा क्षेत्रों का त्वरित जन्म एवं विकास हुआ।
             औद्योगीकरण और उद्यम की बात निकली है तो वेबर के सिद्धांत के बीना इसकी पूर्णता को दर्शाना अल्प सत्य के समान होगा। वेबर ने अपने सिद्धांत का प्रतिपादन 1929 में अपनी पुस्तक थ्योरी ऑफ लोकेशन ऑफ द इंडस्ट्रीज में प्रतिपादित किया था। यह सिद्धांत एक निश्चयवादी सिद्धांत है। वेबर एक जर्मन अर्थशास्त्री थें। इन्होंने अपने सिद्धांत का प्रतिपादन औद्योगिक स्थानीयकरण के विभिन्न कारकों का पूर्ण अन्वेषण करके उनके आधार पर किया। उनके द्वारा लिया ज्ञात किया गया कि लागत में कुछ मूल तत्व अलग-अलग स्थानों पर सामान नहीं होते हैं जैसे श्रमिकों की मजदूरी, यातायात की लागत, आदि। दूसरी ओर लागत के कुछ ऐसे तत्व होते हैं, जो सभी स्थानों पर लगभग समान होते हैं जैसे पूंजी पर ब्याज तथा मशीनों का ह्रास। प्रथम वर्ग के लागत तत्वों का ही उद्योग के स्थानीयकरण पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार लागत विश्लेषण के आधार पर उन्होंने स्थानीयकरण के कारकों को दो वर्गों में विभक्त किया है। पहला प्रादेशिक और दूसरा स्थानीय कारक हैं।
            औद्योगीकरण के फलन ही कई उद्योगों का प्रारंभ हुआ। इसी क्रांतिकारी परिवर्तन के दौर में 1969 में टिम बर्नर्स ली ने इंटरनेट बनाया था। इंटरनेट अमेरिकी रक्षा विभाग के द्वारा यू सी एल ए के तथा स्टैनफोर्ड अनुसंधान संस्थान कंप्यूटर्स का नेटवर्किंग करके इंटरनेट की संरचना की गई। इंटरनेट के अविष्कार से उद्योग में नई क्रांति आई। उद्योगों के उत्पादों के लिए एक ग्लोबल मार्केटिंग प्लेटफार्म मिलना तय हो गया। 1980 के दशक में सर्वप्रथम कुछ प्रयास किये गये डिजिटल मार्किट को स्थापित करने में परंतु यह सम्भव नही हो पाया । 1990 के दशक मे आखिर मे इसका नाम व उपयोग शुरु हुआ। वर्तमान दौर में ई-कॉमर्स और डिजिटल मार्केट के बेजोड़ और त्वरित सेवाओं के रोज नव क्षेत्र खुल रहे हैं।
         वर्तमान दौर में डिजिटल मार्केटिंग के क्षेत्र में नव उद्योगों, उद्यमियों और कई लोगों को रोज़गार मिल रहे हैं। वर्तमान स्वदेशी सेवा क्षेत्रों में आज भी बहुत मांग है। युवाओं को जॉब्स के याचक नहीं उद्यमिता के लिए प्रयास करना चाहिए। जीतने लोगों में जागरूकता और जल्द से जल्द अपने उद्योग के प्रबंधन में महारत हासिल होगा। उतनी ही तीव्रता से आर्थिक सुधारों में तेजी आयेगी। कहने का तात्पर्य है की पूरा विश्व आपके लिए तैयार खड़ा है। उद्देश्य केवल आपके सामर्थ्य को तलाश कर तराशने की है। शेष वैश्विक पृष्ठभूमि आपको आगामी विजयी शुभकामनाओं से नवाज़ के लिए तैयार है। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

चुनौतियों से पार पाने में सक्षम, पर सहयोग भी जरूरी : प्राज/ Capable of overcoming challenges, but cooperation is also necessary


                         (समृद्धि

किसी राष्ट्र के जनों की समृद्धि का तात्पर्य है उस राष्ट्र के प्रत्येक घनत्व क्षेत्र में लोगों की एक निश्चित आय एवं भौतिक सुखों के प्राप्ति के अवसरों में सुगमता हो। वर्तमान में समृद्धि को हम और विस्तृत रूप में समझने का प्रयास करें तो समृद्धि स्तर का आकलन हम आर्थिक स्थिति एवं आर्थिक विकास के आधार पर समझ सकते हैं। आर्थिक विकास की परिभाषा आर्थिक संवृद्धि से व्यापक होती है। आर्थिक विकास किसी देश के सामाजिक सांस्कृतिक, आर्थिक, गुणात्मक एवं मात्रात्मक सभी परिवर्तनों से सम्बंधित है। इसका प्रमुख लक्ष्य  कुपोषण बीमारी, निरक्षरता और बेरोजगारी को खत्म करना होता है। कहने का तात्पर्य है गरीबी अनमुलन होना इसके अनिवार्य शर्तों में से एक है। 
           इसे समृद्धि फ्लैशकार्ड की नीतियों के आधार पर समझते हैं की, एक आर्थिक दर्शन जो करों में तेजी से कटौती करता है, लोगों को काम करने, बचाने और निवेश करने के लिए प्रोत्साहन को बढ़ाएगा । अधिक निवेश से सरकार को अधिक रोजगार, अधिक उत्पादक अर्थव्यवस्था और अधिक कर राजस्व प्राप्त होगा।
           और जीतना अधिक राजस्व होगा। उतना ही अधिक सार्वजनिक क्षेत्र में उत्थान, रोजगार के अवसर और स्वरोजगारों के संसाधन बढ़ेगें। अर्थव्यवस्था, अर्थशास्त्र और आर्थिक विचारों की बात निकली है तो आवश्यक है की अर्थशास्त्र के जनक आचार्य चाणक्य का उल्लेख जरूरी है।आचार्य चाणक्य का भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। चाणक्य नीति सभ्य समाज का मार्गदर्शक करती हैं। साथ ही एक महान इंसान बनने के लिए भी प्रेरित करती है। चंद्रगुप्त मौर्य की सफलता का श्रेय आचार्य चाणक्य को जाता है। अच्छे प्रशासन की स्थापना उसका लक्ष्य है। जिसमें धर्म व नैतिकता का प्रयोग एक साधन के रूप में किया जाता है। कौटिल्य का कहना है,'प्रजा की प्रसन्नता में ही राजा की प्रसन्नता है। प्रजा के लिए जो कुछ भी लाभकारी है, उसमें उसका अपना भी लाभ है।' इस तर्क को और सरलीकृत कर वे कहते हैं की, 'बल ही सत्ता है, अधिकार है। इन साधनों के द्वारा साध्य है प्रसन्नता।' कहने का सार है की प्रसन्न जनता की अवधारणा उनकी समृद्धि के आधार पर निर्भर करता है।
          वर्तमान समय में किसी राष्ट्र के समृद्धि को कैसे मापन करें? यह प्रश्न भी मन में जागृत होता है। हम सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) के माध्यम से किसी राष्ट्र के समृद्धि का अनुमान लगाने का प्रयास कर सकते हैं। जीडीपी यानी ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट या सकल घरेलू उत्पाद किसी एक साल में देश में पैदा होने वाले सभी सामानों और सेवाओं की कुल वैल्यू को कहते हैं। रिसर्च और रेटिंग्स फ़र्म केयर रेटिंग्स के अर्थशास्त्री सुशांत हेगड़े का कहना है कि जीडीपी ठीक वैसी ही है, जैसे 'किसी छात्र की मार्कशीट' होती है। जिस तरह मार्कशीट से पता चलता है कि छात्र ने सालभर में कैसा प्रदर्शन किया है और किन विषयों में वह मज़बूत या कमज़ोर रहा है। उसी तरह जीडीपी आर्थिक गतिविधियों के स्तर को दिखाता है और इससे यह पता चलता है कि किन सेक्टरों की वजह से इसमें तेज़ी या गिरावट आई है।
         किसी राष्ट्र की जनसंख्या  घनत्व और रोजगार, स्वरोजगार एवं सेवा क्षेत्रों के आधार पर उसके समृद्धि होने की संभावना को आकलित किया जा सकता है।  भारत को खेती की समस्या, जलवायु परिवर्तन, कुपोषण, निरक्षरता और महंगाई से निपटने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। जिसमें सरकार सहित आमजनों को भी मिलकर प्रयास करना आवश्यक है। कई ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं की विशेष क्षेत्र में अध्ययनोपरांत युवाओं में रोजगार की कमी (सरकारी सेवा क्षेत्र की ओर ज्यादा झुकाव) के चलते बेरोजगारी बढ़ते जा रही है। राष्ट्र के उत्थान में बाधक है। समृद्धिशाली राष्ट्र की कल्पना के लिए सभी को कटिबद्ध होना आवश्यक है। सरकारी योजनाओं की आलोचना से परेय है। श्रम पर विश्वास और दोगुने लगन से रोजगार पैदा करने की। हम नौकरी के याचक नहीं स्वयं के उपक्रम के प्रशासक बनने का प्रयत्न करें। राष्ट्र की सबलता के लिए यह प्रयास भागीरथ साबित होगा। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर : एक जन नायक / Dr. Bhimrao Ramji Ambedkar: A People's Hero



                        (जन कल्याण

आम्बेडकर विपुल प्रतिभा के धनी छात्र थे। उन्होंने विश्व की दो बड़े शैक्षणिक संस्थान कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधियाँ प्राप्त कीं। विधि, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में शोध कार्य भी किये थे। व्यावसायिक जीवन के आरम्भिक भाग में ये अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे एवं वकालत भी की तथा बाद का जीवन राजनीतिक गतिविधियों में अधिक बीता। इसके बाद आम्बेडकर भारत की स्वतन्त्रता के लिए प्रचार और चर्चाओं में शामिल हो गए और पत्रिकाओं को प्रकाशित करने, राजनीतिक अधिकारों की वकालत करने और दलितों के लिए सामाजिक स्वतंत्रता की वकालत की और भारत के निर्माण में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा ।
            बाबा साहब के लिए लोगों की समानता, लोगों में एकता और लोगों को समान अधिकार प्राप्त हो, इस वैचारिक विचारधारा के समर्थक रहे हैं। संविधान के प्रत्येक पन्नों, अध्यायों का सृजन उन्होंने किसी विशेष समाज या वर्गांतर के मध्य कोई महीन रेखा को देखकर नहीं किया है। जब भी उन्होंने सोचा होगा की भारत और भारत के लोग तो उसका सरोकार सभी वर्ग, पंथ, धर्म, जाति, समुदाय के लोगों को प्राथमिकता की समानुपाती तराजू से परखा होगा।
          यह भी संभव है कि यदि बाबा साहब हमें कहीं ऊपर से देखते होंगे। हम जो आपस में धर्म, जाति, समुदाय यहां तक की समाज में निहित जाति के अंतर्गत कई वर्ण दलित-सवर्ण और मध्यम की रेखा खींच-खींच कर हमने जो बड़ी दीवार खड़ी कर दी है। यह उनको अवश्य आघात करता होगा। कुछ ऐसे महानुभाव होते हैं जो अपना जीवन ऐसे जीते हैं की सारे बंधनों से विमुक्त होकर निर्बाध और स्वच्छंद रहते हैं। ऐसे ही व्यक्ति विशेष हैं बाबा साहब। 
        बहरहाल, संविधान तो सभी में समानता और सभी के लिए समान वैचारिकता को प्रधान रखता है। लेकिन हम कभी-कभी अपनी आजादी के जश्न में इतने चुर हो जाते हैं की दूसरी की आजादी की सीमा का खंडन हम कर बैठते हैं। कभी अधिकारों की शैय्या में बैठकर दूसरों को ऊँगलियाँ दिखाने में देरी नहीं करते है। कभी कुछ अधिकारों के फेर में कुछ ऐसे दावपेच खेल जाते हैं। जिससे मानवता शर्मसार हो जाती है। बाबा साहब जो सबकी समानता, सबके अधिकारों को जीवनपर्यंत प्रधान मानते रहें। उनके विचारों के दहन का नग्न प्रदर्शन वर्तमान में निरंतर जारी है। आज भी समाज में दो वर्ग लड़ रहे हैं। आज भी जातिवाद की जड़ें इतने गहराई में है की किसी भी स्थल पर नवांकुरण लेने में कतई देर नहीं करती है। संवैधानिक अधिकारों के बीच आज भी कई वर्ग अपने मौलिक अधिकारों की समझ नहीं रखते है। कुछ ऐसे लोगो आज भी समाज में पिछड़े हैं।
            आज भी जातिगत विचारों में यदि कोई व्यक्ति विशेष कुछ अच्छा करता है। तो लोगों में फलां जाति, फलां धर्म, फलाँ राज्य के रूप में उसकी संज्ञा दी जाती है। क्या वह भारतीय नहीं है? क्या वह हम मे से एक नहीं है? क्या उसके खून का रंग अलग है? क्या उसके संरचना में पृथक्करण का भाव है? यदि इन सभी प्रश्नों का उत्तर 'नहीं' में है तो, कहने का तात्पर्य यह है की प्रकृति हममें भेद नहीं करती है। हम कौन होते हैं आपस में भेद भाव करने वाले? हम सभी एक हैं। संविधान हमारी एकता का प्रमाण है। और जन कल्याण हमारा लक्ष्य होना चाहिए। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

विज्ञान लेखों की परिधि में सरल भाषा की प्रासंगिकता : प्राज / Relevance of simple language in the periphery of science articles


                         (अवलोकन)

अनेक साहित्य लेखन का कार्य निरंतर जारी है। लेकिन सबसे बड़ी समस्या भाषा और साहित्य के सृजन में प्रयुक्त होने वाले क्लिष्ट शब्दों की उपयोग है। लेखक अपने आलेखों में इतने उच्च शब्दों का प्रयोग करते हैं। जिसकी समझ रखने वालों की मिनिमम योग्यता परास्नातक आपेक्षिक होती है। हम बात कर रहे हैं विज्ञान विषय के आलेख या शोधपत्रों के लेखन के प्रति सजग लोगों के दृष्टिकोण और उनकी मानसिकता के विश्लेषण के संदर्भ में। जो विज्ञान विषय में अपनी समझ तो रखते हैं और विज्ञान के प्रसार के लिए भागीरथ प्रयास कर रहे हैं। परंतु सबसे बड़ी चुन्नौती यह है की वे अपना पांडित्यपूर्ण विचारों को क्या सरलीकरण के लिए प्रासंगिक होंगे।
            किसी यांत्रिक तंत्र के परिचालन, परिचय एवं उसकी उपयोगिता का बखान क्या वे सरल शब्दों में कर पायेंगे? यह एक बड़ा चुनौतियों भरा कार्य है। यह भी संभव है की मेरे विचारों के विरुद्ध कुछ बुद्धिजीवी वर्ग खड़ा हो जाये और कहे की विज्ञान लेखन को क्या इतना सरल कर देंगे की बच्चा समझ जाये फिर विषय की गंभीरता का क्या होगा? मेरे सटिक जवाब से आप भी सहमत होंगे की 'विज्ञान के लिये लिखना' विज्ञान लेख है। विज्ञान लेखन का अर्थ है, विज्ञान, आयुर्विज्ञान, प्रौद्योगिकी के बारे में सामान्य जनता के पढ़ने के लिये लिखना । वैज्ञानिक लेखन पत्रिकाओं, समाचारपत्रों, लोकप्रिय पुस्तकों, संग्रहालय की दीवारों, टीवी और रेडियो कार्यक्रमों तथा इन्टरनेट आदि माध्यमों पर प्रकाशित हो सकता है। जो विज्ञान के नव छात्रों में  विज्ञान को लोकप्रिय और सरल बनाना है। जिससे उनमें वैज्ञानिक सोंच का नवांकुरण तेजी से हो। लेकिन यदि उन्हें साहित्य के कसावट के बीच डराकर रखेंगे। तो जनाब सोचिए वे सीखने की ललक कैसे पैदा कर पायेंगे? 
         ऊपर से भाषा का चयन यदि अंग्रेजी हो तो, डर का प्रतिशत दोगुना घनत्व घेर लेता है। जहाँ आंग्लभाषा में साहित्य या सामान्य शब्दो में कहें तो लेखन की बाढ़ के समान स्थिति है। इस बाढ़ वाली स्थिति में प्लेगरीज्म के प्लेटफार्म पर कॉपीपेस्ट की भरमार भी है। जहाँ कुछ कंटेंट वास्तविक भी हैं और कुछ तो कॉपीपेस्ट विचारकों की देन है। जहाँ साक्ष्य के जगह संदर्भों के सहारे सीढ़ी चढ़ने की परम्परा का अनुसरण करने वाले लोगों की तादाद कम भी नहीं है। बहरहाल वर्तमान में जहाँ एक ओर आलेखों के माध्यम से अपने विषय समझ को प्रगाढ़ रूप से परिचय देने वाले उम्मीदवारों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। वे अपने प्रोफाइल को हाईपर बनाने के उद्देश्य से निरंतर प्रयासरत हैं। लेकिन संभवतः वे यह नहीं जानते की कठिन होना तो बेहद सरल है। लेकिन सरल होकर सरल कह पाना बेहद कठिन है।
        संचार संसाधनों के भरमार वाले इस युग में जहाँ भाषाओं की सीमाएं टूट रही है। वहीं आज भी कुछ सरल और जल्दी समझ आने वाले साहित्य की डिमांड बहुत है। कुछ विरले ही लोग मिलते हैं जो विज्ञान के लेखों में सरल और सहज शब्दों के माध्यम से गहरी बात कह जाते हैं। वैसे मानकता के कसौटी पर तेज और तीक्ष्ण शब्दों में पांडित्य सरल शब्दों के अनुकरणीय प्रयास से सहज रूप में किया जा सकता है। संभव है लोग इसे जल्दी समझें। हम जो साहित्य सृजन कर रहे हैं उनका अभिप्राय तो कल से है। जितना हम साहित्य को लोगों तक पहुचायेंगे उतना ही अधिक प्रतिफल हम लोगों को मिलेगा। हम आने वाली पीढ़ी में वैज्ञानिक समझ और शोध के लिए नवीन मार्ग खोजने में हो सकता है हम सहायक सिद्ध हों। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

निष्ठावान इकाई के कंधों पर भावी कल की आधारशिला : प्राज / The foundation stone of a future tomorrow rests on the shoulders of a loyal unit



                           (संगठन


हमारी प्रकृति हमें जीवन के प्रारंभ से अंत तक विभिन्न चर, अचर निकायों के संगठन के संदर्भ में ज्ञान देती है। जैसे प्राकृतिक तंत्र के लिए एक पारिस्थितिकी आवश्यक है। ठीक वैसे ही समाज में संगठन का होना नितांत आवश्यक है। परिवार में जैसे बच्चे, माता-पिता और वरिष्ठों की भूमिका होती है। जो उस पारिवारिक सुदृढ़ता और सौहार्द्र के लिए आवश्यक है। ठीक वैसे ही समाज बंधुत्व और राष्ट्र के लिए संगठन की प्रासंगिकता अनिवार्य शर्त है। जैसे, सैन्य संगठनों की भूमिका को लेकर चलते हैं। सैन्य बलों के प्रत्येक सदस्य में अगाध राष्ट्रप्रेम की भावना ही उसे संगठन के प्रति उसके दायित्वों के लिए निष्ठावान और सजग रहने के लिए प्रेरित करता है।
          वह अपने बाहुबलों में राष्ट्र की सुरक्षा को सर्वोपरि और अपने दायित्वों, कृत्यों के द्वारा अपने राष्ट्र और राष्ट्र के जनों को सुरक्षित रखने की भावना से अदम्य साहस का परिचय देता है। ठीक वैसे ही एक शिक्षक जिनका पूरा संगठन सेवा, समर्पण और नव ज्ञान का सृजन करने के प्रति कटिबद्ध रहता है। अब आप कहेंगे की संगठन की महत्ता पर इतना क्यों जोर दे रहे हैं। जो भी संस्थागत सेवाएं हैं सभी में एक संगठन आवश्यक है। जो वर्तमान समाज में किसी ना किसी रूप से संचालित है। जिसके ठोस नीव पर वर्तमान का परिदृश्य सोदाहरण प्रस्तुत है।
        संगठनात्मक विवरणिका में एक महीन और तीव्रता से पनपने वाले दीमक की भांति भ्रष्टाचार की अशुद्धियाँ समाज के विभिन्न संगठन चाहे वह सामाजिक हो, सहकारिक हो या शासकिय या निजीकरण में हो, डोपिंग की स्थिति हर कहीं देखने को मिल ही रहा है। यह डोपिंग कई प्रकार से समाज के लिए आघातवर्धनीय है। जैसे सामाजिक पृष्ठभूमि के तानेबाने को तोड़ने का यह प्रयास निरंतर करता है। इसके साथ ही सामाजिक पहलू में यह छद्म रार की भांति भीषण वर्गसंघर्षों के लिए कारक है। जहाँ एक वर्ग अपने आप को समाज के ठेकेदारो में गिनने की भूल कर बैठता है। वहीं दूसरा वर्ग अपने आप को शोषित मानने लगता है। दोनो के बीच झूलती साम्यवाद की विचारधारा न जाने कब टूटकर गिरे और गिरते ही सामाजिक कलह की शुरुआत होती है।
       समाज में निहित प्रत्येक व्यक्ति विशेष में समाज के प्रति निष्ठा, निष्पक्ष सेवा की भावना का होना आवश्यक है। अन्यथा, एक भी हीनता का भाव भावी कल के लिए समाज को पंगु बनाने के कारक के रुप में उद्घृत होते देर कहाँ? वास्तव में मनुष्य अपने लाभ के लिए तो लालायित रहता है। लेकिन परोकारी विचारों के लिए लगभग उदासीनता के मुद्रा में मौन मुस्कान प्रदर्शित करता है। संभव है की हमारी निष्ठा से कोई विशेष लाभ नहीं मिले, लेकिन उस निष्ठा से प्रेरित होकर हम समाज में एक नवीन बदलाव लाने के प्राथमिक सीढ़ी के पहले ईंट तो बन सकते हैं। जिसमें चलकर कल का समाज अत्याधिक शिष्ट और निष्ठावान बने। दायित्वबोध करना तो हमारा लक्ष्य होना चाहिए। लाभ की चिंता के बजाय हमें बेहतर कल के प्रति चिंतन के लिए प्रयास को आत्मसात् करने की आवश्यकता है। शेष प्रकृति पर छोड़ दीजिये, समय ही समीक्षक, परीक्षक और परीणाम है। हम तो केवल चर और प्रत्येक चरों के शुद्धिकरण का काम हम अपने आप से, अपने घर से करें। फिर समाज को सुदृढ़ करने के लिए यह प्रारंभिक परिवर्तन इस परिदृश्य की मांग है। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

धूल चश्में पर थी और हम जमाना साफ करते रह गए : प्राज / The dust was on the glasses and we kept on cleaning the world


                          (बंधुत्व



हम मनुष्यों में एक अजीब टकराव की स्थिति है। जिनका नातों सरोकार हम से हैं। और ना ही हम अपने आपको उन समीकरणों में फिट पाते हैं। तुलसीदासजी ने कब से यह ज्ञान दे दिया है की, 'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मुरत देखी तिन तैसी।' कोई ईश्वर कहता है, कोई भगवान, कोई प्रभू, कोई अल्लाह, कोई मसीह, सारे पर्याय एक हैं। लेकिन बात वहीं के वहीं है की मेरा मत ज्यादा उचित है। अपने उत्कृष्टता का प्रमाण किसी अन्य के सापेक्ष तुलनात्मक और घृणात्मक दृष्टिकोण के रवैये के चलते मनुष्य आपस में टूटने लगे हैं।
           यह क्षरण यह अपने सर्वभौम और विशाल होने के प्रमाण के लिए स्तरहीन तर्कों का सहारा लिया जा रहा है। मेरा विमत् उन लोगों के प्रति नही हैं जिन्होंने ये धर्म, दर्शन और अनुयायीकरण का रोड़ मैंप बनाया है। बल्कि मेरा विरोध उन लोगों के प्रति है। जिन्होंने धर्म की उत्कृष्टता के लिए लोगों में ओज, दूसरे धर्म के लिए वैमनस्य और अपने संख्या को बढ़ावा देने के लिए कोई भी भेड़ बकरी की रणनीति अपना कर स्वांगीकरण करने लगे हैं। वर्तमान समय में समाज में जहाँ कई प्रकार के लोगों का रहना होता है। वे कई धार्मिक, सामाजिक और पंथ के अनुयायी हैं।
           जहाँ हम विभिन्न धर्मों के लोगों में सबसे बड़ी विखंडन यह है की हम हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, आपस में सब भाई-भाई के विचारधारा से संलिप्त हैं। जो संख्या बल में कमजोर हैं। वे संख्या बढ़ाने के लिए धर्मान्तरण या वैवाहिक संबंधों के माध्यम से अपने संख्या में विकसित होने का लोभ पाल बैठे है। उन्हें यह नहीं दिखाई दे रहा की जिस नीति के तहत वे आगे बढ़ रहे हैं। शनैः-शनै: वहीं नीति उनके लिए काल का कपाल बनने में देरी नहीं करेगी।
         वही अपनी जाति अपना धर्म और अपना राग अलापते फिरते मौसमी मेंढ़कों की क्या बात करें। वे ऐसे अवधारणाओं से ग्रसित होते हैं की यदि कोई व्यक्ति श्रेष्ठ है तो मैं हूँ। यदि कोई धर्म श्रेष्ठ है तो मेरा है। यदि कोई परिवर्तन होता है तो उसका लाभांशी यदिं मैं नहीं हूँ। तो वह परिवर्तन मेरे लिए न्यायोचित नहीं है। ऐसे लोग अपने ही धर्म के लिए बहुत बड़ा खतरा है। दूसरों की क्या बात करें।
             हमें अपने और दूसरों सभी के साथ समान व्यवहार करना आवश्यक है। यदि हम पूर्वाग्रह, धार्मिक अंधभक्त और दूसरे धर्मों के अनुयायीओं में पाखंड तलाशते रहे हैं तो अपना पाखंड कभी नहीं दिखाई देगा। यह ठीक वैसी ही कल्पना होगी की 'धूल चेहरे पर रही और मैं आईना साफ करते रहे गया।' बहरहाल ऐसा बिलकुल नहीं है की अभी धर्म के अनुयायीयों और धर्मों के बीच टकराव अपने चरम पर है। लेकिन यह भी आवश्यक है की हम सभी को एकजुट होना आवश्यक है। सामाजिक मजबूती के लिए हम में व्याप्त धार्मिक और जातिगत दूरियों को पाटना पड़ेगा। तभी समाज सुदृढ़ और राष्ट्र सबल होगा। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

मिलाते तो हैं हाथ मगर, ख्यालात नहीं मिलते : प्राज / Shake hands, but thoughts do not meet


                           (मैत्री)


पतझड़ की प्रासंगिकता वर्तमान समाज के संदर्भ में ज्यादा न्यायोचित लगने लगा है। क्योंकि सदाबहार की प्रकृति यानी संबंधों में प्रेम, मैत्री का शुष्कता अति तीव्रता से हो रही है। पहले जहाँ लोग के व्यवहार में संबंधों की प्रगाढ़ होने मर्म अपनत्व रहा। वर्तमान समाजवाद के विशाल दीवारों में जातिवाद, अर्थवाद और भौतिकवाद के रंग रंजन कर दिया गया है। आज का समाज एक तो जातिवाद के भँवरों फसा है। मानव बस्तियों को हम समाज की संज्ञा देते हैं। लेकिन समाज के अंदर और जाति,अर्थ, विचारधारा, मत एवं पंत के अनुसार कई विखंडन है। जिसके चलते बौद्धिक एवं सामाजिक रूप से मैत्री का होना असंभव है।
            चूँकि हमनें अपने और अपनों के बीच ही दायरा बढ़ा लिया है। जनाब फिर तो गैरों की बात छोड़ ही दीजिये। वास्तव में मैत्री संबंधों के बजाय लोगों में व्यवसायिक संबंधों के आधार पर तर्जी देने की परंपरा का अध्यारोपण हो गया है। समय के परिवर्तन और लोगों में संबंधों के लिए नैतिकता के बजाय, लाभांश तलाशने की मनसा ने उसके हृदय से भी कृत्रिम बना दिया है।
               बेपरवाह और केवल स्वयं के हितों के लिए ललायित मनुष्य के पास संबंधों से कहीं ज्यादा भोगी प्रवृति पसंद है। लाभ के लिए अपने के आशातीत नजरों को कुचलने के पूर्व तनिक भी विचार नहीं करते हैं। समाज के लोगों में मित्रता का भाव वैसे तो शून्यता की ओर अग्रसर है। ऐसा कहना उचित नहीं हैै की मित्र या मित्रवत् व्यवाहरों का पतन हो गया है। हाँ, लेकिन यह आवश्यक है की मित्रता के पर्याय में गंभीर बदलाव हो रहे हैं। लोगों में आपस में बंधकर रहने की भावना तो है। लेकिन किसी लाभ के बिना या इतर रहना संभव नहीं है। जहाँ परिवार, जो समाज के सबसे छोटी इकाई में से एक उसमें विघटन और संबंधों में विचलन दिखाई पड़ने लगा है। संयुक्त परिवारों की अवधारणा तो जैसे पुस्तकों के पृष्ठों में दबकर रहने की ओर आमादा है।
        हमें सोचना पड़ेगा की हम आने वाले समाज की आधारशिला कैसे रख रहे हैं। भावी पीढ़ियों को हम कैसे बीजारोपण कर रहे हैं। जो कल चलकर समाज के विशाल वृक्ष बनेंगे। उनके संस्कारों में यदि कृत्रिमता का संवर्धन करते हैं। जैसे वर्णसंकरता से हाईब्रिडेड नस्ल बनते हैं। ठीक वैसे ही सामाजिक ढांचें में यदि मित्रता के भाव का लोप होता है। सामाजिक संघीय पारिस्थितिकी को गहरा और अक्षम्य नुक्सान होना निश्चित है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

आप या मैं नहीं भावनाओं को हम हो जाने दो : प्राज / not you or me let the feelings be us


                          (प्रेम)


आपसी बंधुत्व और सौहार्द्र को परिभाषित करते अांग्ल साहित्यकार आरके नारायण के मालगुडी डेज़ की कहानियाँ की यादें ताजा हो जाती हैं। वास्तव में परिवार और समाज की संकल्पना आपसी बंधुत्व पर निर्भर करता है। जहाँ गांधी के आदर्श और समर्पित होने की भावना का जागरण हो। लोगों में आपसी संबंधों की पराकाष्ठा गांवों की गलियों में मिलता है। जहाँ परिचय मकान नम्बर से नहीं अपनत्व के संबंधों के रिश्तों नातों से होता हैं। परिचय के लिए रिश्तों के पर्याय तो तर्जी दी जाती है। लेकिन वर्तमान में संबंधों का यह धरातल पानी के बीन सूखे खेतों के समान हो प्रतीत होता है। रिश्तों के धरातल पर प्रेम के लोप के चलते संबंधों के सीमा पर प्रत्यास्थता और कठोर कंकरीट होने लगे हैं। 
                संबंधों के निर्वाहन में सबसे ज्यादा डोपिंग तो तब हुआ। जब संबंधों के बनने एवं रिश्तों के कायम रहने के लिए अार्थिक दृष्टिकोण का सहारा लिया जाने लगा है। जहाँ केवल वैमनस्य का कारण ईष्या है। और यहीं भावना परिवार, फिर कुल, फिर समाज में क्लेश का कारण बनते हैं। यह पारदर्शित युद्ध तो नहीं होता है। लेकिन छद्म रूप से होने के बावजूद काफी क्षरण करता है। जिससे समाज में खोखलापन, बेवजह झड़प, टकराव की स्थिति एवं परस्पर सामाजिक संघर्षों का दौर प्रदर्शित होता है।
        समाजवाद के प्रारंभिक कड़ियों में प्रेम, लोक बंधुत्व का होना अनिवार्य होता है। यह वे प्रारंभिक अवयव हैं जो समाज को परिवार के रूप में संकलित करता है। जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम, आयोजन में किसी ग्राम्य जनजीवन में निवासियों की उपस्थिति की अनिवार्यता इसलिए नहीं होता की वे जाना चाहते बल्कि इसलिए होता है कि वे उस आयोजन को सफल बनाने के लिए सर्वश्रेष्ठ और अपनी संलग्नता को आवश्यक मानते हैं।
           हमें यह भी जानना आवश्यक है की हम जैसे सोचते हैं। जैसा मानते हैं। जैसा हमारा परिदृश्य है। लोगों के वह अनुकूल है या नहीं यह जानना भी अत्यंत आवश्यक है। कभी पूर्वाग्रह, कभी जातिगत विषमता, कभी भाष्य विखंडन और आपसी द्वंद्व से परेय हटकर, कुछ नवीन प्रारंभ करना आवश्यक है। वर्ना जैसे शहरीकरण के प्रथा के दौर में केवल शहरों में मकान बसते है। घर का तो जैसे वजूद ही खत्म होने की ओर आमादा है। वैसे ही वैमनस्य के तेज आग में समाज और राष्ट्र को आंतरिक द्वंद्व में झौंक कर सर्वस्व शून्य कर बैठेंगे। समाज, राष्ट्र के उत्थान के लिए लोग बंधुत्व, लोगों में प्रेम, भाईचारे की नितांत आवश्यक है। जो सशक्त राष्ट्र के भावी कल के स्वरों को नव कलेवर देंगे। 



लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

साम्य विचारों की संकल्पना की आधारशिला है विश्वास : प्राज/ Faith is the cornerstone of the concept of equitable ideas


                          (क्षमा


मानवीय प्रकृति में गलती फिर उसके सुधार के लिए प्रयास करना आम बात है। क्योंकि कोई भी व्यक्ति विशेष गलतियों से ही सीखता है। वास्तव में जितनी गलतियां उतना अनुभव की परिपाटी है। लेकिन क्या क्षमा करना या कर पाना इतना सरल है? या फिर कठिन कार्य है जो बहुत ज्यादा सिद्धहस्त होने के उपरांत ही यह परिपक्व गुण मिलता है की अपने से तरूण को क्षमा दे पायेंगे। संत कवि रहीमदास जी लिखते हैं कि-

'क्षमा बड़न को चाहिये, छोटन को उत्पात।
 का रहीम हरी का घट्यो, जो भृगु मारी लात।।'

             उद्दंडता सर्वदा छोटे होना का प्रमाण है और क्षमा करने वाले ही बड़े बनते हैं। ऋषि भृगु ने भगवान विष्णु की सहिष्णुता की परीक्षा लेने के लिए उनके वक्ष पर ज़ोर से लात मारी। मगर क्षमावान भगवान ने नम्रतापूर्वक उनसे ही पूछा, 'अरे! आपके पैर में चोट तो नहीं लगी? क्योंकि मेरा वक्षस्थल कठोर है और आपके चरण बहुत कोमल हैं।' इस प्रसंग में भृगु महाराज ने क्रोध करके स्वयं को छोटा प्रमाणित कर दिया। जबकि विष्णु भगवान क्षमा करके और भी बड़े हो गए।
              क्षमा को वीरों के गहने बतलाते नरपत दान चारण जी कहते हैं की-

  'क्षमा बलं अशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा।
क्षमा वशीकृते लोके क्षमाय किं न साध्ये॥'

        क्षमा एक तरफ जहां दुर्बल की ताकत है, दूसरी तरफ बलवान का गहना है। ऐसा कौन सा काम है जो क्षमा के द्वारा संभव नहीं है। इस शस्त्र के बल पर तो हम सारे जहां पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। क्षमा के जीवन में महत्त्व को अनेक ज्ञान ग्रंथो में उद्धृत किया गया है।
             बाणभट्ट रचित हर्षचरित के अनुसार, ‘क्षमा हि मूलं सर्वतपसाम्’ अर्थात् क्षमा सभी तपस्याओं का मूल है। वहीं, महाभारत में उल्लेख है, ‘गुणवानों का बल क्षमा है’। अलेक्जेंडर पॉप का कथन है, ‘त्रुटी करना मानवीय है, क्षमा करना ईश्वरीय’। ईसा मसीह ने भी सूली पर चढ़ते हुए यही कहा था, ‘हे ईश्वर! इन्हें क्षमा करना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं’। भगवान महावीर स्वामी और हमारे अन्य संत-महात्मा भी प्रेम और क्षमा भाव की शिक्षा देते हैं। जैन धर्मावलंबी अपनी आत्मा को निर्मल बनाने के लिए संवत्सरी पर्व के तहत ‘मिच्छामि दुक्कड़म’ कहकर क्षमा मांगते है।
           वर्तमान परिदृश्य में कहें तो लोगों में क्षमा की क्षमता का विलुप्तिकरण की गति की ओर अग्रसर है। समाज के प्रति या राष्ट्र के प्रति देशभक्ति की भावना केवल राष्ट्रीय पर्वों के दिन देखा जाता है। शेष दिन तो लोगों में जैसे एक दूसरे लोगों से आगे निकलने की होड़ मची हुई है। प्रतिशोध और ईष्या इतनी की कब मन में बदलापूर की पूरी संस्कृति खड़ा किया पता ही नहीं चलता है। ऐसे भावना से ओतप्रोत लोगों में क्रोधाग्नि इतनी की पूरे समाज को जला बैठेंगे। बहरहाल, जैसे हमारे लिए हमारी आजादी आवश्यक है। ठीक वैसे ही दूसरों की आजादी का सम्मान करना चाहिए। तभी राष्ट्र की एकता का प्रमाण होगा अन्यथा टूटन की ओर बढ़कर समाज को हम ही विषयक्त बना बैठेंगे। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़

अपने कर्तव्य के प्रति सच्ची निष्ठा, समर्पण होना है आवश्यक : प्राज / It is necessary to have true loyalty, dedication towards one's duty.


                            (सेवा

समाज या राष्ट्र के लिए समर्पित वह भावना जो व्यक्ति विशेष को अपने हित से ऊपर उठकर सभी के हित के लिए पहले चिंतन,समर्पित सेवा भावना का उद्गम देती है। वह पूर्ण रूप से समर्पित होकर समाज की सेवा में लग जाते हैं। तुलसीदासजी रामचरित मानस में कहा है-

        'परहित सरस धरम नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।'

दूसरों की सेवा में समर्पित होना। जनकल्याण के कार्यों के लिए निरंतर प्रयास करना। आपको समाज के प्रति जागरूक और सामाजिक बनाता है। वर्तमान समाज एक अजीब जीवन शैली के मोहपाश में मनुष्य बंधा हुआ है। इस मोहपाश का नाम है 'स्टेट्स वाली जिंदगी' । जो अपने जीवन स्तर, दिनचर्या और लाईफ-स्टाइल को औरों के स्तरों से उच्च रखने का प्रयास करते हैं। यह छद्म दौड़ की प्रतियोगिता निरंतर संचालित है। संभव यह भी है की हम भी इसी प्रतियोगिता के अघोषित प्रतिभागी हों।कबीर दास ने वर्षों पहले सेवा, समर्पण और समाज के परिदृश्य में जनमानस को समझाते हुए लिखा-

'साँई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय।।'

  हम सभी इसके पर्याय से वाकिफ़ तो हैं, लेकिन पालन इसके विपरीत ही करते है। लोगों में विलासिता का रंगरोगन इतना है की उसने इस दोहे को ही पलट दिया है। लोगों में यह विचारधारा है कि 'साईं इतना दीजिए, जायें कुटुबं समाय। मैं बिलकुल भूखा ना रहूं। हो सके तो दूसरे का छीन खाय।' वर्तमान समय में लोग अपने और अपने हित की बात करते हैं। केवल दूसरों के प्रति ईष्या और द्वेष को बढ़ाने की परम्परा का निर्बाधता से पालन कर रहे हैं।
       बहरहाल कुछ ऐसे लोग भी होते हैं। जिनके जीवन में सेवा भावना, समाज, राष्ट्र और राष्ट्र के लिए समर्पित जीवन की अलग ही परिभाषा अपनी सादगी और समर्पण से देते हैं। ऐसे ही एक शख्सियत हैं,पालम कल्याणसुंदरम उन चंद लोगों में से हैं जो बिना किसी चीज की परवाह किये पिछले कई वर्षों से अपनी सारी कमाई दान करते आ रहे हैं। तमिलनाडु के मेलाकरिवेलामकुलम में पैदा होने वाले कल्याणसुंदरम अपने भोजन और रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए पार्ट टाइम नौकरी करते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन के रूप में मिले 10 लाख रूपये उन्होंने अपनी समाज सेवा की इच्छा पूर्ति के लिये दान कर दी। पुस्तकालय विज्ञान में गोल्ड मेडलिस्ट और इतिहास व साहित्य में परास्नातक कल्याणसुंदरम ने कई पुरस्कार जीते हैं। इन विभिन्न पुरस्कारों से अर्जित 30 करोड़ रूपये उन्होंने बेहिचक जरूरतमंदों को दे दिये।
           कल्याणसुंदरम जी ऐसे उदाहरणों में से एक है जो समाज सेवा के लिए अपनी पृथक व्याख्या करते हैं। जिन्होंने अपने कार्य के प्रति न्याय और नि:स्वार्थ भाव से समाज के लिए अपनी गाढ़ी कमाई दान कर दी है। समाज के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठा, ईमानदारी रखने की आवश्यकता है। चैरिटी के नाम पर पब्लिसिटी की कामना से इतर रहकर यदि कोई समाज उत्थान में समर्पित भावना भी समाज सेवा है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़