Saturday, January 1, 2022

यार... तुमसे सैकेंड हैंड वाली फीलिंग आती है! (फेमिनिज्म) : प्राज ... you get the feeling of second hand! (feminism) : Praj




                                     (फेमिनिज्म


विषय जब स्त्री के सशक्तिकरण एवं स्त्री के समाज में स्थान की हो, तो हमने तो बचपन से एक ही नारा सुना है कि 'बेटी-बेटा एक समान'। अब बड़ों ने जो मानव समाज के जवाबदार तबके से तालुक रखते हैं। उनका मानना है कि दोनों समान है। यहाँ तक की आंगनबाड़ी की दीदी से लेकर स्कूल के मास्टर जी भी यहीं नारा बुलंद करते नजर आते हैं। अपना तो मनो मस्तिष्क भी यह स्वीकार करता है। लेकिन पता नहीं क्यों आज भी समाज पुरुष-प्रधानता को ही वरियता देता है। खैर मेरा विषय समाज में किसकी प्रधानी चले इस विषय से इतर, समाज में व्याप्त एक दोयम दर्ज की विचारधारा की ओर है।
           रिश्तों की परिधि पर दो त्रिज्याओं के मेल में नर-नारी सापेक्ष खड़ें हैं। दोनो एक-दूसरे से पूरक भी हैं। दोनो में आकर्षण एवं मेल भी प्राकृतिक है। परंतू पुरुष विचारधारा में जहाँ सुहागरात के पूर्व कौमार्यता को लेकर प्रश्न तक खड़े कर दिए जाते हैं। वर्तमान समय में जहाँ पूनर्विवाह या तलाक के उपरांत विवाह के लिए पुरुषों के बनिस्बत महिलाओं को ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ता है। जहाँ कौमार्य भग्नता नारी के लिए सैकेंड हैंड होने का प्रमाणन बन जाता है। वहीं यही स्थिति पुरुष पर लागू होने से कोषों परेय है।
              जहाँ दो लोगों दोनो के दूसरे वैवाहिक जीवन का प्रारंभ हो रहा हो। जहाँ दोनों के मन मिलते हों, प्रेम भी हो लेकिन जब शारीरिक मेल के दौरान न जाने कैसे पुरुष के मन में सैकेंड हैंड होने की बूँ आने लगता है। जैसे यह महसूस होता हो की, मुझसे पहले भी किसी और व्यक्ति विशेष ने इस शारीरिक संरचना को अनावरण किया हो। जैसे चांद पर पहले पाँव रखने वाला पहला व्यक्ति कोई भी हो, उसके बाद पग पदार्पण करना दूसरी पंक्ति में बैठने के समान ही प्रदर्शित होता है। इसके और प्रासंगिक उदाहरणों में बात करें तो किसी अदाकारा के फैन्स फॉलोवर तब तक बढ़ते हैं जब तक शादी ना हुई हो और यदि तलाक के बाद की बात करें तो जैसे उस अदाकारा पर द्वितीय स्तर का टैग लगा दिया गया हो। बिलकुल ट्रोल्स के जैसे भुनाई के लिए ही तैयार किये गए हो। संभवतः मन का मेल तो आसान है मगर तन के मेल के दौर में जाने कौन सा वाइरस का लोचा हो जाता है। रहती तो वह फिर भी वहीं है मगर क्यों मानसिकता ही सैकेंड स्टैंडर्ड हो जाता है। क्या कौमार्य की परिधि में स्त्री को परखना और पुरुष को पूरी आजादी दे देना समाज के लिए उचित है। इस विषयक हमें और विचार करना आवश्यक है। संबंधों के सीढ़ी में हमें आगे बढ़ने के साथ-साथ और मेच्योर होना भी होगा। जहाँ कौमार्य भग्नता को लेकर कई परिवार टूटते दिखते हैं। शादी के यदि पति यह समझता है कि 'मैं दूसरा हूँ!' तो निश्चित है यह संबंध  भावी समय में खटाई पड़ सकता है। कई बार तो रिश्ते मध्य रात्रि को ही बिखर जाते हैं। कारण कोई भी हो, चाहे नैचुरल हो या फिर भौतिक मगर क्या स्त्री को शुद्धिकरण के तराज़ू में तौलना और खूद को इस प्रमाणीकरण से इतर रखना, क्या सही है? 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़