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Thursday, June 13, 2019

हां मै भी एकलव्य हूं(शिष्यधर्म) by पुखराज यादव

                           *शिष्यधर्म*
शिक्षा और शिक्षा प्रणाली आधुनिक युग में नव शिखर की ओर गतिमान है। वर्तमान समय में और प्राच्यकाल के शिक्षा-दीक्षा में बहुत अंतर हो गया है। पहले जहां गुरुकुल में विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे, वही क्रमोनोत्तर विकास के साथ आज शिक्षा स्मार्ट क्लासेज तक पहुंच चुकि है। वहीं शिक्षक,गुरू,आचार्य,पण्डित,ऋषि या शिक्षादाता जों भी नाम लें, उस पद को या उस ज्ञान के प्रदाता की भक्ति करना ईश्वर की भक्ति से बड़ा माना जाता है। कहा गया है-

"गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
   गुरुरेव परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।। "

अर्थात, गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।
ठीक इसी प्रकार-
सन्त कबीर कहते हैं:-

"गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय।।"

यानी- गुरु और गोविन्द (भगवान) एक साथ खड़े हों तो किसे प्रणाम करना चाहिए, गुरु को अथवा गोबिन्द को? ऐसी स्थिति में गुरु के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है, जिनकी कृपा रूपी प्रसाद से गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
इसके साथ ही संत कबीर गुरु की अपार महिमा बतलाते हुए कहते हैं:

सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।
तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड।।

अर्थात, सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रहाण्डों में सद्गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे।
कहने का तात्पर्य है गुरू का पद और धर्म महान होता है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में गुरू /शिक्षक पद एक व्यवसायिक पद हो चला है। शैक्षणिक संस्थानों में कार्यरत् शिक्षको का सम्मान समाज में हालांकि अन्य वर्गों से उच्च है लेकिन व्यवसायिकरण से इस पद की गरिमा,आभा में न्यूनाधिक क्षति संभव ही हुआ है। वहीं कई संस्थानों में शिक्षक पद के दुरूपयोग,शिक्षा के क्षेत्र में शोध को नव प्रयोगों की ओर ले जाने के बजाय कुछ गिनेचुने लोग इसे सैटिंग पद्धति की ओर धकेलने पर आमादा हैं।

खैर मेरा विषय यह नहीं है, वर्तमान समय में शिक्षा संस्थानों पर निगरानी कमेटियां बन रहीं है,जो समय समय पर गुणवत्ता और सुधार की हिदायतें देते रहते है।

आईये लोटते हैं मैनें जो विषय इंगित किया है "शिष्यधर्म" उस ओर.... शिष्य या परम शिष्य की बात चलती है तो स्वभाविक रूप से सभी के मन:पटल पर एक महान शिष्य,गुरुभक्त हिरण्यधनु के पुत्र एकलव्य का नाम अवश्य ही आता है। जिन्होंने गुरु द्रोणाचार्य के गुरुदक्षिणा में एकलव्य से उसके हाथ का अंगुठा मांगने पर बिना सोचे ही एकलव्य ने अपने दाएं हाथ का अंगूठा निकाल रख दिया था।
सच में ऐसा महान शिष्य शायद ही होगा, २१वीं सदी के आधुनिक दौर में कहीं ना कहीं गुरु-शिष्य परम्परा संकटग्रत स्थिति में है और विलुप्ति की ओर अग्रसर है। यहां तो किसी परीक्षा में छात्र-छात्राओं को नम्बर कम या ज्यादा मिल जाये तो छात्र, भड़काऊ भाषणों पर उतारू हो जाते है। फलां शिक्षक ने भेदभाव किया है?? फलां वर्ग के लोगों को पॉईंट किया गया और न जाने क्या-क्या बेबुनियादी बातों के लहर उठाने लगते हैं।
क्या यही है शिष्य होना?? सोचिए...
मै नहीं जानता की आचार्य द्रोण ने एकलव्य से अंगुठा मांगना सही था या नहीं मगर मै एक शिष्यधर्म के अनुरूप देखू तो एकलव्य की गुरुभक्ति मेरे लिए एक प्रेरणा स्त्रोत है।
       हां.... मैं एकलव्य बनने को तैयार...हूं
       हां... मैं छात्र हूं और शिष्यधर्म मेरा कर्तव्य है।
                                         आपका
                               पुखराज यादव "प्राज"
                                  9977330179