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Monday, November 12, 2018

साइलेंट लव स्टोरी by Writer Pukhraj Yadav "Pukkhu"




दोस्तों मेरा नाम प्राज है,और ये मेरी कहानी है। मै रायपुर शायद २००० में आया था रेलवे स्टेशन पर प्लेटफार्म नम्बर ०१ में रेलगाड़ी रूकी, खचाखच भरे ट्रेन की बोगीं में मै २० किलो का बालक था। किसी समान के भांति,मै ट्रेन से उतरा नहीं था, भीड़ ने मुझे धक्के देकर उतार दिया था। वर्तमान रायपुर के रेलवे स्टेशन से कुछ अलग अंग्रेजों के शासन काल कि याद दिलाने वाले ब्रीज और चौड़े खपरैलों से पटी छत अजीब लगा, मै किसी और शहर से आया था और रायपुर मेरे लिये किसी स्ट्रेंज ट्रेवल्स से कम ना था। ओह्ह बातों बातों में मै भूल ही गया, सामने स्टेशन पर टीटी मेरी तरफ ही देख रहा था। मै उससे नज़रे चूराते छूपते-छूपाते निकलने लगा। उसने तेज आवाज लगाई-" अबे...रूक,तेरी तो।" मै तो फिर किसी रेफ्युजी की तरह जोर से दौड़ लगाया,दो तीन लोगों से टकराता हुआ जैसे-तैसे करके आगे बढ़ा और वहां से भाग निकला।
         हम जब रायपुर पहूचे थे जेब में आठ-आने का चमचमाता हुआ सिक्का था। सोचा की इसे खर्च कर दूँ, लेकिन अक्सर ये होता है ना कि आखरी रूपया जेब से निकलता कम है जान ज्यादा निकलती है। मैने खर्च नहीं किया, स्टेशन से थोड़ी दूर सीधे जा कर लेफ्ट की ओर मुड़ा वहां पे आटो और रिक्सा वालों की चिलम्-चिल्ली हो रही थी, "दीदी मेरे साथ चलो,मै सस्ते में ले चुंगा, आपको डंगनिया जाना है" भांति-भांति के प्रलोभन वाले लाईव विज्ञापन जैसे लग रहे थे। सामने एक गुरूद्वारा था लंगर चल रही थी हमने भी सोचा बहती गंगा में हाथ धो लिया जावे।भूख भी तो जोरो की लगी थी। ऐसे ही कुछ-कुछ जगहों को चिन्हांकित कर लिया, जहां मुफ्त में दो वक्त के रोटी का जूगाड़ हो जाए। शनै:-शनै: कालचक्र का पहिया घूमने लगा और फिर क्या था थोड़ी समझ और बड़ी, कबाड़ चुनते-चुनते पढ़ने को मन होता तो किसी स्कूल में घूस जाता पकड़ा जाता तो मास्टर जी चिल्लाते मगर मेरे स्थिति देख हाथ चलाते-चलाते रूक जाते खैर वो सब पूरानी बाते थी। काम और कैरियर को नक्शे में ऐसे पिरोया कि एक स्कुल में चपरासी जॉब मिल गया, समतुल्यता और ओपन की परीक्षाएं देकर कुछ तो भला हूँ।
        लगा रहा है मैं कहानी से भटक रहा हूँ, चलिये मेरी स्टोरी पर लौटते है। बात 2018 नवम्बर महीने की है ठंड जैसे पैर पसारने लगी, रोज सुबह तड़के 4-5 बजे रोज रनिंग के लिये निकलता। मैने अपना कमरा कालीबाड़ी में किराये से लिया था। सुबह 5बजे बुढ़ा तलाब तक रनिंग करते जाता फिर पैदल वापस आता। एक दिन जब मैं लौट रहा था तभी गांधी उद्यान के पास एक परी जैसे लड़की को देखा, ज्वगींग ड्रेस पहनी, पंजों पर ग्लब्स लगाए, सफेद पीटी सूज में हल्की हल्की दौड़ रही थी। मै रोड़ के इस पार था और वो रोड़ के उस पार थी। मै उसे देखते देखते चलते गया। वो रोड़ के उस पार फूटपाथ पर दौड़ रही थी मै  इस पार दौड़ रहा था। सामने दैनिक नयनदर्शी मित्र मुझे स्माईल देकर आंखों के इशारे से मेरा हाल जानने का प्रयास किये। मै भी मुस्कुराकर उनको ठीक हूँ का ईशारा किया। अर्रे...अर्रे.....रूको रूको वो थक गई सामने में बेंच थी उस पर बैठ गई। हम तो पहली नज़र के शिकार हुए थे, अपने आप को राजकपूर से कम थोड़ी ही समझ रहे थे। थोड़ा आशिकाना अंदाज देवानंद साहब का भी निखरने लगा हमारे अंदर, हम भी हमारे साईड के सिमेंट के बेंच पे सवार हो गए। उस समय लग रहा था कि जैसे हम किसी राज्य के शासक हो। खूब ऐठन के साथ, शरीर में एकड़न जैसे स्वाभाविक हो तेज तरार्र सैनिक की मुद्रा में बैठे उन्हे निहार ने लगे। अब तक तो उनकी नज़र हम पर नहीं पड़ी थी, लेकिन को कहते है ना लड़कियों का अंदाज भले चाहे जैसे हो,जो उन्हे घूरते रहता है उसे वो पक्का जान जाती है। उसने मेरी ओर बड़ी आँखे करके देखा। मै घबराया और आसपास नज़र दौड़ाई लगभग ३०से ५० लोग थे। मन में विचार आया अगर इस लड़ने ने आवाज भी लगाई तो ये सारे मुस्टंडे उसके अस्थाई भाई बनने से गूरेज नहीं करेंगे और यकिनन मुझे वहां-वहां से तोड़ेगें जहां से आशिकी का भूत निकल ही जायेगा। घबराकर मैं उठा, घबराहट में मेरे जूते के ही लेंश पर पैर रख डाला,जैसे एक कदम आगे बढ़ाया मैं धड़ाम से गिरा, वो मुझे देख कर खिलखिलाई। कपड़े साफ करते मै किसी आदतन मजनू की तरह सिर के पीछे हाँथ रखकर मुस्कुराकर उसकी हसी में शरिक होने का प्रयास किया। वो कहते है ना आशिकी के प्रारंभिक क्लास में गड़बड़ी हो जाती है,तो उसकी याद देर से जाती है। मैं वहां से उस लड़की को बाय करके लगभग १घंटे पूर्व ही निकल गया था,लेकिन वो नजारे और मेरा बेवकुफो की तरह की हरकत बार- बार फ्लेशबैक की तरह दिख रहे थे।

        फिर रोज सुबह का इंतजार होता, रोज वो वैसे ही मिलती रोड़ के उस पार वो रहती और रोड़ के इस पार मैं रहता...इशारों ही इशारों में बातें होने लगी। हम रोज साथ चलते घड़ी चौक वाले मोड़ से मै कालीबाड़ी के लिये मुड़ जाता वो रेलवे रोड़ वाले रास्ते पर...एक दिन मैनें इशारों में अपने सहकर्मी को ये बात बताई तो उसने मुझे इशारे से कहा- "तुम्हे बात करनी चाहिए..उस लड़की से।" मै मन हीं मन सोचने लगा....मै तो बोल ही नहीं पाता हूँ....उससे क्या कहूँगा। सड़क के इस पार तो अच्छे से इशारे कर देता हूँ, लेकिन सामने रही तो वो जान जायेगी की लड़का बोल नहीं पाता है यार....!!!और किरकिरी हो जायेगी। फिर दूसरे दिन मैं उसे देखा, अब प्यार थोड़ा रेत के महल की तरह खिसकने लगा। मै चूप-चूप था....वो इशारों से पूछने लगी क्या हुआ मैं जवाब नहीं दिया। आज वो सड़क पार करके मेरे पास आई उसने इशारे से पूछा-" क्या हुआ??"
मैने भी इशारे में कहा- "मै बोल नहीं सकता"
वो बोली- "बोल तो मैं भी नहीं सकती! तो क्या हुआ हम तो दो महीने से बातें कर रहें है।"
मैनें भी उसे कहा- "तुम भी नहीं बोल सकती"
उसने तेज हाथों के इशारों के साथ बोली- "मै तो बातें करती हूँ, हमेशा...अपनी भावनाओं से, तुमसे और जो मुझे जानते हैं,उन सब से"
मै मुस्कुराया और घुटने के बल खड़ा होकर साइन लैंगवेज में बोला- *"143"*
वो मुस्कुराई और इशारे में बोली- "इतने जल्दी नहीं पटने वाली, थोड़ी और कोशिश करो तो बात बनेगी" ये कहकर वो आगे निकल गई।

सच ही कहा है-

*इश्क लिखना सरल है,*
*मगर मेरे दिल करना आसां कहाँ,*
*ये तो समझने की बात है...*
*इसमें जरूरत जुबाँ की कहाँ?*

       लेखक-
     पुखराज यादव "राज"
         9977330179
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  pukkhu007@gmail.com