________///👣क्या मेरी परिभाषा नहीं?///__________
जाने किस वर्चस्व की......ठनी है।
जाने कौन सी बेमतलबी ध्वनि है।
क्यों हर बात पर मुझें.. टोकते हो?
मेरी राहों में पत्थर क्यों फेकते हो?
धर्म या समाज के नाम पर.....या
कभी रिश्तों के पहचान पर .....!
हर कहीं तुम रोकते,तोड़ते,मरोड़ते,
मेरी अस्तित्व पर छाप...छोड़ते हो।
क्या मेरी आजादी,आजादी नहीं?
क्या मेरी आबादी, आबादी नहीं?
क्यों पुरूष ही प्रहरी है समाज का?
क्या पाप है होना औरत-जात का?
कभी जेवर को कलेवर कहते हो?
तो भी मंशा वही... आधिपत्य की!
क्या मेरी कोई अभिलाषा नहीं...?
जो बोलो वो,बोलूँ,जो कहो वो,कहूँ?
जो पहना दो,पहनूँ?,जैसा कहो,करूँ?
क्या एक नारी की,कोई परिभाषा नही?
तुम ऐठ-ऐठकर भरलो चाहे आशमां,
मेरी चाहत की क्या कोई जमी नहीं?
और नसिहतें भी और दो चार धरलो,
थोड़ी मुट्ठी बाहर हूँ जमकर पकड़ लो।
क्या शर्म नहीं आती तनिक तुम्हे...!
मै ही हूँ,जो करती सृजनित तुम्हे....!
क्या मेरी कोई...परिभाषा नहीं..!
क्या मेरी कोई अभिलाषा नही..!
रचना-
*©पुखराज यादव "राज"*
pukkhu007@gmail.com
जाने किस वर्चस्व की......ठनी है।
जाने कौन सी बेमतलबी ध्वनि है।
क्यों हर बात पर मुझें.. टोकते हो?
मेरी राहों में पत्थर क्यों फेकते हो?
धर्म या समाज के नाम पर.....या
कभी रिश्तों के पहचान पर .....!
हर कहीं तुम रोकते,तोड़ते,मरोड़ते,
मेरी अस्तित्व पर छाप...छोड़ते हो।
क्या मेरी आजादी,आजादी नहीं?
क्या मेरी आबादी, आबादी नहीं?
क्यों पुरूष ही प्रहरी है समाज का?
क्या पाप है होना औरत-जात का?
कभी जेवर को कलेवर कहते हो?
तो भी मंशा वही... आधिपत्य की!
क्या मेरी कोई अभिलाषा नहीं...?
जो बोलो वो,बोलूँ,जो कहो वो,कहूँ?
जो पहना दो,पहनूँ?,जैसा कहो,करूँ?
क्या एक नारी की,कोई परिभाषा नही?
तुम ऐठ-ऐठकर भरलो चाहे आशमां,
मेरी चाहत की क्या कोई जमी नहीं?
और नसिहतें भी और दो चार धरलो,
थोड़ी मुट्ठी बाहर हूँ जमकर पकड़ लो।
क्या शर्म नहीं आती तनिक तुम्हे...!
मै ही हूँ,जो करती सृजनित तुम्हे....!
क्या मेरी कोई...परिभाषा नहीं..!
क्या मेरी कोई अभिलाषा नही..!
रचना-
*©पुखराज यादव "राज"*
pukkhu007@gmail.com