*घोषविक्रय हुई मानवता*
नैतिक मूल्यों का पतन बढ़ा है,
अमानवीयता का चलन बढ़ा है।
रोज घटनाओं का अम्बार बने,
लगता जैसे मानवता मंदन गढ़ा है।
किससे पूछे किसने रौंदा भाई,
मद्द को कई हाथ उठते मगर क्या??
विडियो ग्राफी से फूरसत कहां,
और लगता मद्द से ज्यादा प्रचार बड़ा है।
चींख-चींख कर दम तोड़ गई,
कई बालाएं मुसिबत के दौर पर,
क्या फर्क पड़ा है जनाब मगर,
बहरों का, ये संसार घना बड़ा है।
कितनी पतुरिया बना दी जाती,
कितनी मासूम गुड्डियों को तोड़कर..
कितनी बहुएं जला दी जाती,
दहेज,संतान और शंका के मोड़ पर।
और हो हल्ला है सामाजिक में,
कहते फिरते तुम तो आशिकमिज़ाजी,
तुम्हारे से तो मेरा धर्म बड़ा है,
व्यवहारिक पेंच यही पर फसा पड़ा है।
कहीं दगें,कही हिंसा,कही आतंक,
रोज रंगते अख़बार के पन्ने इनसे तो,
क्या यह कह दूं तुम ही बताओ,
कि मनुष्यता ह्रास के कगार पे खड़ा है।
जाने कितने ताले मन के खोलनें पड़े,
जाने लोगों में कब अपनापन लौटे फिर,
चल फकिरे गाता चल तू, पुक्खू रे,
घोष विक्रय होती मानवता और सखी,
भीड़ बड़ा है....
भीड़ बड़ा है....
भीड़ बड़ा है....।
*कवि- पुखराज यादव"पुक्खू"*
9977330179
Justonmood.com
नैतिक मूल्यों का पतन बढ़ा है,
अमानवीयता का चलन बढ़ा है।
रोज घटनाओं का अम्बार बने,
लगता जैसे मानवता मंदन गढ़ा है।
किससे पूछे किसने रौंदा भाई,
मद्द को कई हाथ उठते मगर क्या??
विडियो ग्राफी से फूरसत कहां,
और लगता मद्द से ज्यादा प्रचार बड़ा है।
चींख-चींख कर दम तोड़ गई,
कई बालाएं मुसिबत के दौर पर,
क्या फर्क पड़ा है जनाब मगर,
बहरों का, ये संसार घना बड़ा है।
कितनी पतुरिया बना दी जाती,
कितनी मासूम गुड्डियों को तोड़कर..
कितनी बहुएं जला दी जाती,
दहेज,संतान और शंका के मोड़ पर।
और हो हल्ला है सामाजिक में,
कहते फिरते तुम तो आशिकमिज़ाजी,
तुम्हारे से तो मेरा धर्म बड़ा है,
व्यवहारिक पेंच यही पर फसा पड़ा है।
कहीं दगें,कही हिंसा,कही आतंक,
रोज रंगते अख़बार के पन्ने इनसे तो,
क्या यह कह दूं तुम ही बताओ,
कि मनुष्यता ह्रास के कगार पे खड़ा है।
जाने कितने ताले मन के खोलनें पड़े,
जाने लोगों में कब अपनापन लौटे फिर,
चल फकिरे गाता चल तू, पुक्खू रे,
घोष विक्रय होती मानवता और सखी,
भीड़ बड़ा है....
भीड़ बड़ा है....
भीड़ बड़ा है....।
*कवि- पुखराज यादव"पुक्खू"*
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