अब कूल तजकर क्यों जाती कूलिनी,
क्या तप का ताप क्षरण में है मालिनी।
या दोहन कर बैठा अति मनु अज्ञान,
क्यों रुष्ठ तीर से हो तज चली,शैवालिनी।
परिवर्तित है नियम तो,यंत्र भी बिफरे,
जैसे विपरित होकर गिरती है हालिनी।
स्वच्छ कौन? कौन यहां निर्मल है??
नहीं बनती अब ग्रहण करे जो नलिनी।
किसके भाग में है अमृत अंबु तनिक,
मानो हो चली है सुई- ढेर की फलिनी।
धूमिल लो फिर हूई प्रकृति और चित्त,
फिर कौन बनेगी मर्दानी सी कुंडलिनी।
संस्कार से सिंचित संसार करों सब,
पूर्ण जगत् तुम्हारा संभालो हे! शालिनी।
अब कूल तजकर क्यों जाती कूलिनी,
क्या तप का ताप क्षरण में है मालिनी।
*✍🏻पुखराज यादव "पुक्खू*
9977330179
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