हम नही सूधरेगे
वाह! वो एक कहावत है ना कि अंग्रेजों के रहते नहीं सूधरे तो अब क्या सूधरेगें, हम नहीं सूधरेगंे? आज कल यह कहावत चरितार्थ होने लगा है। यहां तो दफतर दफ्तर , षहर -षहर और हर घर सिर्फ एक कहावत गुंज रहा है- ‘‘हम नहीं सूधरेगें!’’ साहब एक वाक्या आज कल सोषल मीडिया से होते हूएंे प्रींट मीडिया का सहारा लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया की सुर्खियां बटोर रहा है। खबर है कि ओडिसा के कालाहंडी जिले के सरकारी अस्पताल में भर्ती हूई एक ग्रामिण महिला का निधन इलाज के दौरान हो गया। महिला की जाति मांझी हैं। मृत्यू के बाद उसके पति ने अस्पताल प्रबंधन से निवेदन किया कि-‘‘ साहब! मै गरीब आदमी हूॅं। मेरे पास इतने पैसे नहीं है कि मै अपनी पत्नि के षव षरीर को घर तक ले जाने के लिये कोई स्वाषासी वाहन किराये से कर पाऊगाॅं। आपसे निवेदन है कि मेरे घर तक जाने के लिये षववाहन को भेजने कि कृपा करे मै आपका आभारी रहूगां।’’ यह सब निवेदन सूनने वाला भी तो किसी मिनिस्टर से कहां अपने आप को समझता उसने वाहन मंे पेट्रोल नही होने का बात कह कर अपने दफ्तर से बाहर खदेडने में कोई कोताही नहीं की। मांझी के ऊपर एक तो वैसे ही दूखों का पहाड़ टूटा था। चूपचाप वह आॅॅिफस से नम आंखें लेकर बाहर निकल गये। फिर सोचा कि मांझी तो अगर ठान ले तो पहाड़ को भी काट कर रास्ता बना ले फिर ये कश्ट की घडी कैसे नहीं दूर होगा। मांझी ने षव पर कपड़ा लपेटा और कंधे पर ही षव को लेकर साथ 15-16वर्श की पुत्री को लेकर निकल पडे 40 दूर गांव के सफर को। राह में जहां थकावट महसूस होता सड़क के किनारे षव रखकर वहां पर आराम करने को बैठ जाते थे। बेटी मां का षव देखकर रोने लगती उसे ढंढस बंधाते हूऐ चूप कराते और खूद के हृदय पीडा को छिपाने का प्रयास करते रहे। रास्ते में जो कोई भी देखता बस सवाल करता कि क्या कंधे पर लेकर जा रहे हो? बताने पर सुनने वाला चकित होएं बिना नही रहता था। रास्ते में सवाल पुछने वालो का मजमा लगा रहा पर किसी के हृदय से उनकी मद्द करने का विचार तक नहीं किया। लगभग 10किलोमीटर के सफर के बाद कुछ गांव के युवाओं ने उनकी मद्द करने का सोचा उन्होनें कालाहंडी के कलेक्टर साहब को फोन कर व सोषल मीडिया से उन तक मामले की जानकारी दी और मामले की गंम्भीरता से अवगत कराया। कलेक्टर ने तुरंत ही उनके लिये एक एम्बुलेंस की व्यवस्था करावाया। और उनको घर तक पहूचने का साधन दिया।
मामला यहां तक नहीं खत्म होता हैं। बल्की यहां से प्रारंभ होता है। बात यह है कि जब मामले की जानकारी अस्पताल प्रषासन से लेने पहूचे मीडिया कर्मीयों ये बताया गया कि षव को घर तक लेजाने के संबंध में कोई जानकारी नहीं होने की बात कही गयी। वहीं किसी भी प्रकार से सहायता कि गुहार के संबंध में अस्पताल प्रबंधन ने सीधे-सीधे नकारते नजर आयंे। अस्पताल से मान भी लिया जाये की अगर षव लेजाने के संबंध में जब स्लीप लिया गया। तब अस्पताल की जवाबदेही होती है कि षव को घर तक छोडने का प्रबंध करता है। चलो ये भी मान लिया जाये कि अस्पताल प्रबंधन की नाकामी रही की वो सिस्टम को दोश रोपण कर अपना पल्ला झाड़ लिया। पर क्या 10 किलोमीटर के सफर में क्या कोई भी व्यक्ति मानवता के नाते क्या इतना भी हक नहीं बनता कि हम उस गरीब परिवार की दुःख के समय में थोडा सा ही सही पर सहायता तो कर सकते थे । कंधे में षव को उठाये ले जा रहें मंाझाी का विडियों बनाने वालो की आंखों का पानी क्या इतना सुख गया है कि इंषानियत का दर्द भी महसूस करना भूल गये है।
मीडिया में बैठ कर बड़ी - बड़ी बांग देने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को जब इस बात की जानकारी मिला तो क्या मद्द करने के लिये कोई आगे नहीं आया। हां लेकिन जैसे लगा की मामला ठण्ड़े बस्ते में जा रहा है तो मीडिया में बडी-बडी बातें और प्रषासन के सिस्टम पर ताना कसने और मानवाधिकरों की हनन का दलिलें बयान करने लगते है। वाह! सायद हम कभी नहीं सूधरेंगें?
साहब!...... ये मामला जब ओडिसा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक को जब मिला तो उन्होनें मामले की जांच और जो भी इस मामले में लिप्त पाये जायेगें उनके खिलाफ कार्यवाई करने का आष्वासन दिया गया हैं। पर उन लोगों पर कार्यवाई कौन करेगा? जो केवल मूक दर्षक बने रहे और वो दलित परिवार दूःख से गमगिन रहे। वाह ! क्या सिस्टम है। कोई भी काम हो हमें क्या करना है। सरकार करेगा। सरकारी अमला करेगा । साहब कब तक ऐसे रहेगें हम ? कब तक दर्द सहेगा मांझी जैसे परिवार? खूद को तो बदलो। सिस्टम खूद ब खूद ही बदल जायेगा।
यह मामला 25 अगस्त2016 का है इसे बिते एक दिन ही नहीं हूआ है कि एक ऐसा ही मामला और सामने आया है। मामला ओडिसा के बालासोर का है जहां ऐसे ही एक अस्पताल में एक और महिला की मृत्यू हूई। अब दाह संस्कार के लिये परिजन जब अस्पताल प्रबंधन ने पोस्टमार्टम के षव को 14 किलोमीटर दूर पी.एम. सेन्टर लेजाने को कहा। यहां तो आर ही हद हो गया। षव लेजाने का वाहन खराब था। सरकारी व्यवस्थाओं का यह लचर प्रदर्षन देखने को मिल रहा है। परिजनांे षव को एक पोटली में डालकर बांस के बल्ली में डाल कर पोस्टमार्टम केन्द्र तक लेकर जाना पडा। तब जाकर कहीं षव को उसके परिजनो के हैण्डओवर किया गया। दोनो ही मामले में ओडिसा के स्वाष्थ्य सुविधाओं की पोल खोल कर जग जाहिर कर दिया।
लोगों ने सायद यह मन ही बना लिया है कि हम नही सूधारने वाले है क्योकि ये तो बात रही सिस्टम प्रणाली कि अब एक ऐसे मामले का विष्लेशण करते हैं। मामला है मघ्यप्रदेष के जबलपूर जिले के ब्लाक के किसी गांव की जहां पर षवयात्रा तालाब के बीचो बीच से होकर गुजरा। 25 अगस्त की मामला प्रकाष में आया है जहां दबंग और बाहूबलियों ने एक तालाब के पार पर कब्जा जमाया हूआ है। उस जगह से दलित परिवारांे को आना जाना करने में मनाही हैं। 24अगस्त 2016 को दलित परिवार एक बुजूर्ग की मृत्यू रात को हो गया। अब तडके सूबह सभी परिवारजन सगें,संबंधि सब एकत्र हूए। षवयात्रा निकाला गया और जैसे ही षवयात्रा तालाब के पास पहूचा । उच्च वर्ग के लोग अपने कब्जे वाले पार पर पहूच गये जहां से दलितों को आना जाना मना था। मूक्तिधाम जाने का मार्ग भी उसी कब्जे वाले पर के हिस्से से होकर जाता है। दबंगों के डर से सभी दलित परिवारजन तालाब में गले तक पानी में डूबकर षव को कंधे में लेकर तालाब पर किया। तथा मूक्तिधाम पहूच कर षव का दाह संस्कार किया।
अब प्रष्न उठता है कि क्या मानवता अब सिर्फ पन्नों पर ही रह गया है? समझ नहीं आता है साहब की सच में ‘‘हम नहीं सूधरेगें’’। हम वहीं है जो निर्भया काण्ड के वक्त सकड से संसद तक मार्च करने लगते है। हर बात को मानवाधिकारों से जोडते है। पर सचमंे क्या है हम सूधरना ही नहीं चाहते ये सोचाना हमारा कर्तव्य है। हम किसी के मद्द के लिये कैसे अपने आप को अपंगु साबित कर रहे है। जस्टीस के लडाई में माना कि बहूत अडचने आते है। पर क्या चलना इतना इतना मुष्किल हो गया है कि हम डर जाते है। साहब !...कोई चोर कोई लूटेरा आपके घर आ जाये तो क्या यहि कहेगें की -‘‘ मै तो पुलिस का इंतेजार करता रहा और चोर चोरी करके निकल गया। क्या आप तब भी चूप रहेंगें जब कोई गुण्डा आपकी बहन बेटियों से बद्सलूकी करेगा तब मत कहना की हम तो पुलिस का इंतेजार कर रहे थे। ये जहां अपना है लोग अपने है। हम सब एक है। पर क्या हम यही कहते रहेगें कि प्रषासन सब कूछ करेगा। तो जिन्दगी भर में आप सिर्फ और सिर्फ यही कहते रहेगें की हम नही सूधरेगें।
आपका
पुखराज यादव