‘‘चल-चल रे संगी शीला बिने ला’’- छ.ग. के माटी की एक रंग का छटा का परिचय
शीला शब्द से आप कहीं अर्थ ये तो नही निकाल रहे है कि कोई पत्थर के रूप में तो नही सोच लिए थोडा सब्र करिये हमारे अंचल में एक खास शब्द है शिला बिनना अर्थात् धान के कटाई के बाद जब धन के फसल को जब लोगों के द्वारा खेत से लाया जाता है तो धान के कुछ बालियां खेत में ही रह जाता हंै जिसे उठाने के लिए घर के नन्हें बच्चों के द्वारा धान के इन बालियों को उठाने का कार्य करते है, इस कार्य को ही शीला बीनना कहते है।
नन्हें बच्चों के द्वारा खेत खलिहान से धान के बालियों को उठाकर धान के गुच्छे घर को लाते है। ऐसे काम को करने के लिये बडों के द्वारा किसी तरह से प्रोत्साहन नही दिया जाता हैं। बच्चे स्वतः ही ऐसे काम करते है और उत्साह के साथ धूप छांव के परवाह किये बगैर ही घर से निकलते है। और दोपहार तक वापस आते है। उस पर कुछ पंक्तियां लिखने का प्रयास कर रहा हु।
चला चला रे संगी, शीला बीने ला।
बडे बिहनिया, जल्दी उठबे...
चलबो घुमें खेत घूमेला चलबों,
जीन्हा छुटे हो ही शीला तेला बिने ला।
चला चला रे संगी, शीला बीने ला।
गोठ गोठ म झन भुलाबे,
सुरता करके मोर घर आबे,
कोनो ल झन बताबे,
कि जावत हवन शीला बीनेला।
चला चला रे संगी, शीला बीने ला।
खेत खार म उमचबे,
गोठ बताबे तय सुबेला।
छोटी,राधा, रानो ल बुलाबे,
संगेसंग तहूआबे.....
चला चला रे संगी, शीला बीने ला।
शीला ले धान मिंज के,
का बिसाबे तय शीला बेच के।
सबबो झन के गोठ बताबो....
आबे पुखू तहू सुबे ल
चला चला रे संगी, शीला बीने ला।
चोर सिपहिया, लुका छीपी,
रेस टीप, आखीबंधा खेले ला,
बिल्लस के हे खेल-खेलबो,
मंतर अंतर सिखे ला....
चला चला रे संगी, शीला बीने ला।
मुर्रा-मिच्चर तको खबो,
शीला बेच के सबो बीसाबो...
बेरा में देरी नइ करन....
दाई नही तो लगही खोजे ला
चला चला रे संगी, शीला बीने ला।
इस कविता का केन्द्रीय भाव है नन्हे बच्चे जो शीला बीनने को लेकर कितना उत्साह रहता है।वे क्या क्या सोचते है उसका उल्लेख करने का प्रयास किया हू।।
आपका
पुखराज यादव