Wednesday, October 26, 2016

मौत के किस्ते....।

मौत के किस्ते....।

हम लोग आज आधूनिकता के दौड में इतना अंधे हो चले है कि हमें खबर ही नहीं है कि हम प्रकृति का कितना दोहन कर रहे है। जैसे हम प्रकृति को कोई टाइम बम की तरह सजा रहे है। मानो की हम अपने मौत का समान तैयार कर रहे है। सामाज को सुचित करते हूए एक कविता आपके समक्ष रख रहा हुॅ। जिसका षीर्शक है ‘‘मौत के किस्ते’’ आपका अपना पुखराज यादव।

                               मौत के किस्ते....।



मौत के किस्ते,
जमा रहा हुॅ।
कितने दिन जीऊ,
इसकी फिक्र कहां।
डूब रहा हू,
खुद भी।
सबों को डुबा सकुं,
वो खोह सजा रहा हुॅ।
              ये पागल है सब,
              जो जिन्दगी लम्बी कहते।
              मै तो चार दिन को,
              दो पल बना रहा हूॅ।
              फैक्ट्रीयां, कारखाने यहां,
              ये जैसे हो धूऐ का संसार नया।
              जीवन की चिमनियां,
              मै बुझा रहा हूॅ।
              मौत के किस्ते,
              जमा रहा हूॅ।
संसार की परवाह कहां,
लुप्त हो रहे है प्राणी जहां।
मै तो इंषान हूॅ,
आंनद से रहू,
वो जहां बना रहा हूॅ।
मौत के किस्ते,
जमा रहा हूॅ।
              अम्लीय वर्श,सुखा
              बाढ़ और त्रासदि,
              मेरे कर्मों का देन है।
              ऐसे कर्म और
              बढा रहा हूॅ।
              अन्न को तरसे लोग,
              ऐसा मृदा बना रहा हूॅ।
              पर्यावरण से,
              मै भी खेला
              तुम भी खेलो
              औद्योगिकता के नाम
              विश जहां में उडेलों।
              ऐसे मौत के किस्ते,
              जमा रहा हूॅ।
बच्चे-बच्चे को मषीन सा
बनाने के ख्वाब,
सजा रहा हूॅ।
हर पल पृथ्वी को
औद्योगिक बना रहा हूॅ।
मौत के किस्ते,
सजा रहा हूॅ।।
मौत के किस्ते,
सजा रहा हुॅं।।