Thursday, March 30, 2023

धार्मिकता की आड़ में पनपती वैमनस्यता के भाव


               (प्राज की कलम से)


भारत को प्राय: उत्तर-औपनिवेशिक सफलता की कहानी के रूप में देखा जाता है। यह संपन्न नागरिक समाज और बहुलवाद और सहिष्णुता की संस्कृति के साथ दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। इसके विशाल आकार और बहु-जातीय चरित्र के बावजूद, संघर्ष दुर्लभ रहा है और कई समूह शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में हैं। इसका प्रमुख अपवाद हिंदुओं और मुसलमानों के बीच धार्मिक संघर्ष है जो आजादी के बाद के वर्षों में कई बार हिंसा में बदल चुका है। हाल ही में हिंदू दक्षिणपंथी राजनीति के प्रभुत्व से जुड़े सांप्रदायिक दंगों में वृद्धि हुई है।
           संघर्ष को व्यापक रूप से हिंसक और वैचारिक/राजनीतिक संघर्ष दोनों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। ताकि भारत के धार्मिक संघर्ष को एक सामयिक के बजाय एक निरंतर कारक के रूप में प्रकट किया जा सके। हालांकि, उन हिंसक विस्फोटों पर विशेष ध्यान देना आवश्यक जो संघर्ष को चरम पर दिखाते हैं। आनंद के शब्द, 'सांप्रदायिकता' का उपयोग दोनों पक्षों के कट्टरपंथियों द्वारा रखी गई अंतर और अलगाव की विचारधारा और इन समूहों के बीच संघर्षों को संदर्भित करने के लिए 'सांप्रदायिक संघर्ष' के संदर्भ में किया जा सकता है। 
       यह भी तर्कसंगत है कि भारत में धार्मिक संघर्ष का उदय न केवल पिछले धार्मिक संघर्षों की निरंतरता है बल्कि एक विशिष्ट राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भ से उत्पन्न हुआ है। सबसे पहले, मैं धार्मिक संघर्ष की प्रकृति और दी गई मानक व्याख्या की जाँच भी संभव है। संघर्ष के तात्कालिक कारण, हिंदुत्व की विचारधारा और राजनीतिक विखंडन के व्यापक संदर्भ की मिलते हैं। जिसमें यह विचारधारा प्रमुखता से बढ़ी है। अंत में, हिंसा को रोकने के लिए नागरिक समाज और सरकारी संरचनाओं की भूमिका की व्याख्या भी प्रासंगिक है।
            वर्तमान समय में धर्मवाद और धर्म के प्रचार के लिए उलजलूल तरीकों का प्रासंगिकता में आना चिंताजनक है। हर वर्ग चाहे वह बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक या निम्न अपने अपने स्तर पर अपने आप को बड़ा और दूसरे वर्ग से धार्मिक संपन्नता दिखाने के चक्कर में अतिवादी होने को आमादा है। जैसे धार्मिक रैलियों का आयोजन हो या धार्मिक कार्यों में लोगों को बाध्यकर उपस्थिति दर्ज कराने की परम्परा अलग ही कहानी बयान करती है। वहीं ऐसे में मीडिया और अखबारों के कार्मिकों में भी धर्म/जाति या पंथसूचक शब्दों का प्रयोग कही ना कहीं धार्मिक भावनाओं के बढ़ते ज्वाल में घी का काम करती है। भारत जो विभिन्न पंथ और धर्म के लोगों का निवासगाह है। जहां की सहिष्णुता की वैश्विक स्तर पर कोई सानी नहीं है। ऐसे देश में धार्मिक हिंसा के पनपते वैमनस्यता भावी संघर्षों को हल्दी चंदन करेंगे।


लेखक
पुखराज प्राज 
छत्तीसगढ़