(मर्म-मंथन)
विद्यालय जीवन में पाठ्यक्रम से लेकर शिक्षक दोनो ने सत्य के विषय में शक्ति,अडिगता और निष्ठा के विषय में ज्ञान अवश्य प्रदान किया है। हमें बचपन से निष्ठा और सत्य के मार्ग का माहिर पथिक बनाने का प्रयास अभिभावकों, शिक्षकों और स्वजनों का होता है। वास्तव में
सत्य के अलग-अलग सन्दर्भों में एवं अलग-अलग सिद्धान्तों में स्वरूप या कहें परिभाषा भिन्न-भिन्न अर्थ की संज्ञा में हैं। जैसे सत्य का शाब्दिक अर्थ है सते हितम् यानि सभी का कल्याण। इसी कल्याण की भावना से ओतप्रोत होकर व्यक्ति सत्य बोल सकता है। सत्य के कई सिद्धांत हैं जैसे पहला, अनुरूपता का सिद्धान्त है,जो अन्य चेतनों का हमें स्पष्ट बोध नहीं हो सकता। कुछ दर्शन के शोधार्थी कहते हैं कि अनुरूपता के आधार पर हम उनके अस्तित्व में विश्वास करते हैं। बड़ा प्रश्न यह है कि शीशू जन्म के पश्चात् विश्वास करना प्रारंभ करता है। अपितु स्वीकार्यता के परिधि से पृथक उसी को वास्तव में देखता है। संभवत: वह सभी पदार्थों को अपने नमूने का समझता है और पीछे कुछ वस्तुओं को अपने असमान पाकर अचेतन समझने लगता है।
सत्य का दूसरा सिद्धांत है - अविरोध का सिद्धान्त। जिसके अनुसार अध्यात्मवाद कहता है कि वस्तुवाद के पास इस आपत्ति से बचने का कोई साधन नहीं। सत्य के मापक की खोज स्वयं अनुभव में करनी चाहिए। वास्तव में मनःपटल पर आंतरिक विरोधों की शांति इस सिद्धांत का जड़त्व है। जहाँ अनुभवों की पुनर्रावृत्ति के पश्चात् अविरोधवाद का जन्म इस सिद्धान्त और सत्य की पराकाष्ठा है।
सत्य का तृतीय सिद्धांत यानी- व्यवहारवाद। जहां इसकी ज्ञानमीमांसा में उपयोगितावाद है कि, "जो कुछ विश्वास के संबंध में अपने आपको मूल्यवान् सिद्ध करता है, वह सत्य है।व्यवहारवाद निर्बाध झिझक के यह मान लेता है कि जो विश्वास एक के लिए सत्य है, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है।"
तीनो ही विचार सत्य के कसौटी को पृथक-पृथक तरिके से परिभाषित करते है। आईए अब हम सत्य के पराकाष्ठा और वास्तविकता के बोध के लिए ईशोपनिषद के पंद्रहवें मंत्र को व्याख्या के साथ सत्य को समझने का प्रयास करते हैं।
"हिरण्यमयेंन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं।
तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये ॥१५॥"
यथार्थ, सत्य या वास्तविकता का मुख चमकीले सुनहरे ढक्कन से ढका है। हे पोषक प्रकृति ! सत्य के विधान की उपलब्धि के लिए, साक्षात् दर्शन के लिए तू वह ढक्कन अवश्य हटा दे। इस परिधि में मर्म यह है कि सत्य के पहले जीवन के विभिन्न मार्ग पर मोह का मनमोहन करने वाला महिन आवरण होता है। जिससे मनुष्य उसे ही अपने जीवन के लक्ष्यों और सार की भांति वास्तविक होने भूल कर बैठता है। इस सर्वत्र सत्ता में प्रकृति के विशाल सागर में आश्चर्यों के एक से बड़ कर एक वृहद उदाहरण हैं। जीवन के लक्ष्यों में और चिंतन में यह वास्तविक रहस्य छुपा हुआ है कि हमारा जीवन सिर्फ़ खाने,वृद्धि, प्रजनन और मृत्यू तक सीमित नहीं है। मनुष्य यदि जीवन के सार सत्य लक्ष्य को जान पाता है तो चैतन्यता स्वमेव जागृत हो जाती है। वह जीवन को लक्ष्य और शारीरिक संरचना के बंधन से मुक्त होकर विचारधारा के अमरत्व सफल पर आगे बढ़ने लगता है। वह अपने आप को प्रकृति में वासित मानता है। यह वही स्थिति है जहाँ वह स्वहित की तलाश के बजाय परोपकार को सर्वोच्च समझता है। क्योंकि जो इस प्रकृति का उसे वह समर्पित करने की उद्देशिका से सबकुछ बांटे चला जाता है। वास्तव में सत्य का जो वैभव है वह सोने के ढ़क्कन से दबा हुआ है। यानी सत्य की पराकाष्ठा अत्यंत तेजोमय है जो सूर्य के तेज पर भी नहीं पिघलता है। जहाँ स्वर्ण रूपी पात्र को प्रकृति का तेज यानी सूर्य की रश्मि जला कर भी सत्य के आँच को कम नहीं कर सकता है। ठीक वैसे सत्य के मार्ग पर चलने वाले मनुष्य की अडिगता को प्रकृति अवरोधन की भूमिका से पृथक रखती है। बल्कि वह ऐसे विद्वत्ता से लब्धि लोगों को मर्म के मंथन में दोगुनी शक्ति से वैसे परिवेश का निर्माण कर देती है। जीवन के सार में सत्य है क्योंकि सत्य ही जीवन के मंथन की प्राथमिक सीढ़ी है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़