एक जबरदस्त पंक्ति पढ़ा,जो दीवाल के छज्जे पर लिखा था- "भारत गांव में बसता है।" विचारों के मेंघ मन के गगन में टकराने लगे कि किसी ने ऐसा क्यों कहा होगा?? खैर साल के शुरुआती माह जनवरी में मेरा जाना चिंगरौद गांव में हुआ...वैसे तो मेरे परिवारिक समुदाय के ही लोगों का घर है। जिस घर मेरा आना हुआ,वहां समेकित परिवार था। शुरू में तो लगा कि इतने लोग एक साथ रहते हैं यह तो के से कमाल है,पर मन में फिर विचार आया कि जहां बर्तन हो वहां खनक होना लाजमी है। सोचने लगा इतने सारे लोग हैं क्या कभी मनमुटाव के जाल का प्रकोप यहां नहीं पसरता होगा। क्या इतने सारे लोगों को एक साथ रखने के पीछे का निर्देशक कौन होगा? क्या क्यों कैसे कहां सारे सवालिया ध्वनियाँ छंद की भाँति गेयता से प्रश्न पर प्रश्न का टंकन मेरे अंत:मन पर अंकन कर रहे थे। हम सभी ने साथ में भोजन किया फिर संध्या भ्रमण और बातों की महफिल अलाव के बीच चल निकला। यह नजारा मेरे लिये नया नहीं था,हम स्काऊट गाईड के एक कैम्प में ऐसे ही कैम्प फायर का अनंद लिया था,लेकिन घर में ऐसा दृश्य देखकर अच्छा लग रहा था। अंगीठी के धधकती ज्वाला शारीरिक ठीठूरन को दूर कर रही थी। बातचित के दौर में अहसास हुआ कि परिवार के सभी सदस्यों का वरिष्ठता के अनुसार ही स्तरांतरण है। जब परिवार के मुखिया कुछ कह रहे थे तो सभी शांत होकर उनकी बातों को सूनते और संसद में बहस की भांति अंतिमन चरण में हामी भरते, फिर छोटे बच्चों की नटखट शरारतें और उनसे बड़ों की बातों का दौर तरम्यता से चलता रहा। वाकई में उस स्थाल पर कोई मायाजाल बुना गया हो ऐसा प्रतित हो रहा था, समय चक्र ना तो खलल बन पाया और ना ही मोह प्रत्यास्थता के भूमिका में नहीं आ पाया। १२ बज चुके थे पर निंद किसी की आँखों ना दिख रही थी। खैर परिवार के मुखिया ने सभा समाप्त की और सभी सोने चले गए। मै और भूनेश(मेरे बड़े भईया) हम दोनो नये भवन में सोने चल निकले। नये घर पहुँचे इस घर की भी जबरदस्त कहानी है उसी परिवार के एक सदस्य ने बताया कि नक्शा पिता जी ने,प्रारंभिक स्तर बड़े भईया ने, छज्जे तक मैनें और शेष बांकि का काम सबने मिलकर करवाया था। रात को सभी सो रहे थे पर उनके परिवार की सहचर्यता और परस्पर सहयोग की भावना का मन में अमिट अंकन बनने लगे। पता ही नहीं चला की तिमिर को चीरते हुए प्रभातफेरी स्वरूप उजाला दस्तक देने लगा। सुबह फिर उसी महौल में रहा जो बड़ा ही रोचक रहा।
ओह्ह मुझे याद आया हम अपने आलेख के प्राक्कथन से भटक रहे हैं। मैनें प्रारंभ में ही कहा था की भारत गांवों में निवास करता है। आईये इस ओर चलें। सुबह घूमने निकले थे चौराहे को पार करके नदी की ओर बढ़ रहे थे तो एक लगभग ५०वर्षीय एक आदमी दो-तीन गायों को हाकते हुए ला रहा था। हम लोगों के साथ जो भईया थे उन्होने पू़छा - "भईया ये बिसाहू घर के गाय हरय का।" उसने जवाब दिया-"हहो, नदियाँ के ओ पार रिहिस हवय छेंक के लावत हवव, बिसाहू ह दू दिन ले खोजत रिहिस ये मन ला, जावत हवव उँखर घर लेग के छोड़ दूहूँ।" और वो आगे निकले, हम भी नदी ओर चल निकलें। भाईया से बात पर पता चला की लोगों में आपसी सहयोग और गांव को एक परिवार के समान जानकर हैरत तो हुई साथ ही शहर के बारा आने के समान लोगों की भीड़ के बारे में विचार आ गया। जाने किस बात की आपाधापी है। इतनी व्यस्तता की अपने पड़ोस के बारे में जानना उनके लिये विदेश के समान हो गया है। बिना किसी मतलबी वीजा के पड़ोस जाने के लिए पासपोर्ट नहीं निकलते हैं। इतनी फूरसत नहीं की पूछ लिया जावे की कैसे हैं??और क्या हालचाल हैं।
भारतवर्ष विविधताओं से भरा है, प्रत्येक राज्य की अपनी अपनी संस्कृति, भाषा, बोली सब है। वह जो कथन है भारत गांव में बसता है। यह कहने वाले महान हैं उन्होने हर राज्य के एक घर के समान संज्ञा दी है और पूरे भारतवर्ष को गां की । वास्तव में हमें गांव के सामाजिक पृष्ठभूमि से सिखने की आवश्यकता है। बाह्य आडंबर और वर्चश्वता से बाज आना पड़ेगा। तेरा- मेरा, अपना-पराया छोड़कर हम-हमारा-हम-सब और सर्व अपनत्व के प्रभा फैलाना होगा। हम चाहे विविध हो मगर एक गांव की भांति, एक परिवार की भांति एक रहना पड़ेगा। एक परिवार की तरह सभी के प्रतिनिधित्व और संस्तरण के साथ आगे बढ़ना होता तभी भारतवर्ष विश्व विजेता बना रहेगा। आईये प्रयास करें, उस संत की वाणी में भारत गांव में बसता है। इसको चरितार्थ करना पड़ेगा। नहीं तो अहम् तो सबको ले डूबता है, हो सकता है हमारा भी टाईटेनिक अहम् और घमंड के चट्टान से टकरा कर महासागर में डूबने लगे। आईये एकता का प्रयास करें।
लेखक
पुखराज वाई प्राज
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