पता नहीं ये विचार कहाँ से आया,मै तो शांत ही बरगद के नीचे बैठा प्रकृति के करीब था, एक समाचार पत्र का तुकड़ा हवा में गोते खाता हूआ, मेरे समिप आकर गिरा। मैनें भी सौकिया पाठकों की तरह,जैसे कोई दूकान आए दो रूपये की शक्कर वाली चोंगी को खोलकर उस तुकड़े में लिखे लेख को पढ़ने लगते है,ठीक उसी के भांति में भी उस पेपर के तूकड़े को पढ़ने लगा, सिर्फ टाईटील लाईन थी उसमें तलाक की खब़र छपी थी,उसमें। वो कहते है ना खाली दिमाग शैतान का घर मेरे भी मष्तिष्क में विचारों के नवीन शोध होने लगे। एक तथ्य सामने आया ठीक से तो याद नहीं लेकिन लगभग सभी राज्यों में कहीं ना कहीं, कोई ना कोई प्रतिदिन महिलाएं शोषण की शिकार हो रही है। वर्तमान में भी जैसे *मीटू* कैम्पैन चल निकला है। जिसने पूरे सिनेमा जगत में हलचल खड़ा कर दिया है। लगभग २:३० दोपहर को सभी चैनलों में प्रसारित होने एस.बी.एस.(सिने-ख़बर) के दर्शक बढ़ गए है। दफ्तरों में भी यह वक्त लंच ब्रेक का होता है, तो लोग मोबाईल टीवी के माध्यम से ऐसे सिरियल्स को देखने लगे है। सभी को लगता है हर नये दिन के साथ हो सकता है किसी ना किसी एक्टर,डायरेक्टर, कास्टिंग काऊच इत्यादि पे *मीटू* बम मारा जायेगा।
खैर हम अपने विषय पे पूनः लौट ते है। मैने उस पेपर की तुकड़े में तलाक की खब़र पढ़ी। विचार चल निकला की क्या कारण है कि हमारी संस्कृति में विवाह बंधन को सात जन्मों का बंधन माना जाता है वहां विवाह विच्छेद की भावना भी पनप जाये तो विचारणीय विषय हो जाये,लेकिन ये सत्यता है जितने वकिल साहबों का हूजूम अपराध पर लड़ाई पर जान पड़ते जितने संख्या में तलाक दिलाने वाले वकिल नज़र आते हैं। गज़ब है ना, अदालतों के आप पास नज़र मारें को रोज कम से कम १०-२० जोड़ी एक दूसरे से भिन्न होने का प्रयास करते मिल जायेंगे। किसी ने कारण सोचना ही उचित नहीं समझा। यहां तक की शादी के टीकने को भी शारीरिक स्वस्थ्यता और कामवासना के कमी,अधिकता से तुलना करने वालों का भी एक धड़ा है।ये ऐसे प्राणी है जो पड़ोस और चुगलखोर तंत्रों के स्थाई सदस्यता ग्राही होते है। इनका तर्क बे सिर-पैर के, सिर्फ बाऊंसर मार कर ठहाके तक सीमित रहता है।
ऐसे ही दो पक्ष ऐसे और खड़े होते है। पहला पक्ष लड़के के परिवार वाले और दूसरा पक्ष लड़की के परिवार वाले, दोनो पक्षों को लगता है हमारा बच्चा सरीफ और नेक है और खराबी सामने वाली पार्टी की है। दोनों परिवार तलाक के चक्रव्युह से जब तक नहीं निकलते तब तक ऐक दूसरे से ऐसे पेश आते है जैसे डब्लू-डब्लू-ई का रिंग हो जहां सामने वाले को दे पटकनी पटकना ही है। उन्हे कभी आईना देखने की लत ही नहीं लगती, किसी ने खूब कहा है कि *धूल चेहरे पे थी,और आईना साफ करता रहा* पर ऐसे मामलों में ये ध्यान नहीं दिया जाता है। सभी अपनी,अपनी तुतरू बजाये पे बजाये जाते हैं।
विचार ने मेरे फिर पल्टी मारी और ये आया कि_ पति पत्नि में पहले सा विश्वांस नहीं प्रतित होता है। इसका कारण क्या हो सकता है, विचारों ने पूराना झूनझूनू उठाया *पाश्चात्य संस्कृति* का। लेकिन इसपे तो समाज के ठेकेदारों ने इतने क्लेम मारे हैं कि ये शब्द कॉपी राईट मिला है ऐसे लगता है। विचारों ने कहां पर इससे टाल भी तो नहीं सकते है, तब इस पे(पाश्चात्य संस्कृति पे) गंभीरता से सोचना प्रारंभ किया। हमने पाश्चात संस्कृति को ऐसे गोद लिया जैसे दुनिया की सबसे हसिन चीज हो। पर इसके लिये परिपक्व नहीं हो पाये है। पाश्चात्य संस्कृति की एक गज़ब घटना याद आई सालोमन और वेक पहले शादी किये दो बच्चे हूए फिर विवाह विच्छेद हो गया फिर सालोमन के निओ से प्रेम हुआ अब वो विवाह कर लिये फिर निओ, वेक और सालोमन तीनों एक ही छत के नीचे रहते है। यहीं कल्पना यहां करके देखें तो यहां तो पति अपनी पत्नि को किसी गैर मर्द से बात करते देख ले,तो शाम को बेल्ट से पत्नी पे बरस पड़ता है। स्वाभाविक है जलन प्रेम में अवश्य ही उत्पन्न हो जाता है।
राईट्स और अधिकार तो हैं, लेकिन कई महिलाएं सिर्फ ये सोंचकर ही शोषण सहन करती है की यह उनकी नियति हो। पर ऐसा नहीं होना धीरे-धीरे महिलाएं घरेलू हिंसा के लिए खड़ी हो रहीं है। और कानून भी कड़े बनाए गए है। बहरहाल विषय पर तर्किकता लिये चलते है कि आज के समय में जो विवाह विच्छेद हो रहे है। वास्तव इसका कारण हो लोगों में विश्वांस की कमी है उसका कारण है सामाजिकतंत्र में असांस्कृतिक अशुद्धियों की डोपिंग होना है। वर्तमान में लड़का-लड़की साथ चलते है तो लोगों में मनोवैज्ञानिक सोंच बन जाती है कि इनके बीच कुछ तो होगा। इतने नीचता परक विचारों के धनी लोगों की संख्या भी कम बिलकुल नहीं है। कभी ये नहीं सोचते की वे भाई-बहन भी हो सकते है, अच्छे मित्र हो सकते है। जरूरी नहीं की विपरित लिंगीय है तो उनके बीच व्यभिचारित व्यवहार हो ये सोंच कभी लोगों के पल्ले ना चढ़ती है और ना गले उतरती है। यहां तो ये है कि रिश्तों की बंधनों को भी लोग तार-तार बताने से गूरेज नहीं करते है। इंटरनेट, टीवी के टाकिंग सो, सैक्स पर फ्रीडम की बाते और वर्जिनालिटी पे बे धड़क टाक-टू-पर्सन्स की विविधता के कारण भी लोगों व्यभिचारी तो कम हूए, लेकिन मानसिक रूप से व्यभिचारिता के शिकार होने लगे है। हर रिश्तों के करीबी और दुरियों को गलत नज़र से नापना ही लोगों की मुर्खता का द्योतक है। ऐसे ही एक कहावत है ना *बूंद-बूंद से घड़ा भरता है* ठीक वैसे ही थोड़ी-थोड़ी वैचारिक विष मानसिकता में स्वच्छ विचारों को विषयक्त करने को आमादा है। यही कारण शनै:-शनै: परीवार को बिखेरने लगे है। परीणामतः विवाह विच्छेद, परिवारिक कलह, पिता-पुत्र के संबंधों में टूटन प्रदर्शित है।
हम भारतवर्ष के वर्तमान और भावी कल हैं, आईयें समाज को स्वच्छ और दोष रहित बनाने का प्रयास करें।
रचनाकार-
*पुखराज यादव "राज"*
9977330179