आज ख्वाबों के बुलबुलों ने टूटकर,
मुझे और हिदायत-ए-सिख दे दी है।
आज तो टकराएंगे आशमां भी यार,
मंजील ने चुनौतियाँ पहाड़ सी दे दी है।
हो सकता है कमतर हो जाऊँ,मगर
हौसलों ने शौर्य को आवाज देदी है।
बैठे बिठाये बट जाते अगर फल तो,
श्रम की परिभाषा इतिहास ने युँ हीं,
मेरे अजीज़...बेवजह ही नही थमा दी है।
किसी ने पहाड़ का सीना चिर दिखाया,
किसी ने लहरों को रूई सा मोड़ दिखाया।
किसी ने हवा को स्थिर कर घर बसाया है,
किसी ने टकराकर समय से भेद खींच ली है।
युँ ही नहीं परिश्रम की परिभाषा दी है।
नाम,बनकर युँ ही नहीं चमकते,
पुखराज बनने की परीक्षा पत्थर ने,
बड़ी भली,वेदनाओं को सह कर दी है।
युँ ही नहीं परिश्रम की परिभाषा दी है।
*युँ ही नहीं परिश्रम की परिभाषा दी है।*
*युँ ही नहीं परिश्रम की परिभाषा दी है।*
पुखराज यादव "पुक्खू"
महासमुन्द
pukkhu007@gmail.com