. *🍁हाय...!!! री महंगाई*
एक ही तो रोटी बची थी,
की छिनने तुम घर तक चले आए।
क्या कम था भाव तुम्हारा,
जो नाक सिकोड़ते तंग गली में चले आए।
महंगी,महंगी सारे ख़्वाब है,
और महंगाई में जीना पड़ता महंगा।
कुछ बचा रखे तो जेवर तो,
बिकवाने को फिर से तुम चले आए।
कीमतों के जैसे दोहन पर हो,
गरीबों के झोली में ख्वाहिश का तमाचा,
जैसे लगने लगा है,क्या कहू?
लेकर नव अलंकरण महंगाई क्यों आए।
क्या पता किसकी नीति नियत,
या पॉलिसी पर दोष मड़ने का वक्त नहीं।
दो रोटी,चार में बाटते बराबर पहले,
अब एक भूख चखाना आखिर क्यों आए।
एक ही रोटी थी बची थोड़ी सी,
उसे छिनने भी तुम दौड़े चले, घर आए।
महंगाई तू सजती जा रही री,
मुझे जलाने,ये अलंकरण में क्यों आए??
*©पुखराज यादव "पुक्कू"*
9977330179
एक ही तो रोटी बची थी,
की छिनने तुम घर तक चले आए।
क्या कम था भाव तुम्हारा,
जो नाक सिकोड़ते तंग गली में चले आए।
महंगी,महंगी सारे ख़्वाब है,
और महंगाई में जीना पड़ता महंगा।
कुछ बचा रखे तो जेवर तो,
बिकवाने को फिर से तुम चले आए।
कीमतों के जैसे दोहन पर हो,
गरीबों के झोली में ख्वाहिश का तमाचा,
जैसे लगने लगा है,क्या कहू?
लेकर नव अलंकरण महंगाई क्यों आए।
क्या पता किसकी नीति नियत,
या पॉलिसी पर दोष मड़ने का वक्त नहीं।
दो रोटी,चार में बाटते बराबर पहले,
अब एक भूख चखाना आखिर क्यों आए।
एक ही रोटी थी बची थोड़ी सी,
उसे छिनने भी तुम दौड़े चले, घर आए।
महंगाई तू सजती जा रही री,
मुझे जलाने,ये अलंकरण में क्यों आए??
*©पुखराज यादव "पुक्कू"*
9977330179