यहां तो वर्चस्व की लड़ाई है
सच तो मगर हां लम्बी चढ़ाई है।
किसके फुरसत तनिक भी,
पढ़ाई से दुजी दुनियाँ की पढ़ाई है।
कौन बाटेगा जाने दु:ख भी,
यहां मिठाई देख मूह ललचाई.. है।
गैर से लगते कभी कभी तुम,
जो दर्पण पे अक्श नज़र को आई है।
किसे कहे कि कुछ तो शर्म कर,
यहां तो मैनें भी ली वहीं,अंगड़ाई है।
पहले तो तुम ऐसे ना थे,जी..
ये दो रंगों भरी किसकी परछाई...है।
जहां भी,जिधर भी,जैसे-वैसे,
सारा खेत ही कैसे रंग डाला तुमने!
उलझनों भरी है मगर...
आँखिर ये है, और वर्चस्व की लड़ाई है।
वर्चस्व की लड़ाई है..,पुक्खू.............२
वर्चस्व की लड़ाई है........................।
*©🕴पुखराज यादव "पुक्खू"*
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