(लघुकथा)
एक मित्र के पान-पैलेस के अंदर, बैठा हूआ था। सिगरेट की डीबिया लेकर मन में एक मोनालिसा का चित्र था उसे डिबिया के ऊपर उतारने का प्रयास कर रहा था तभी-
- " भाई-भाई कैसा है यार??"
- " भला चंगा हूँ!!"
- "रामू भाई, एक सिगरेट देना तो यार कश की तलब लगी है।"
(रामू ने उसे सिगरेट दिया)
- "क्या यार?? ये सिगरेट छोड़ क्यों नही देता??"
- " छोड़ देता लेकिन सामाजिक सेवक हूँ इसलिए नहीं छोड़ता।"
- "वाह रे बिगड़े नवाब..इसमें कौन सी समाज सेवा???"
- "देख ऐसा है, सिगरेट बनने से पहले, तम्बाकू चुनने वाले,फिर वनोपज मंडी फिर फैक्टरी तक जाती है। सोच कितने लोग इसके पीछे रोजगार से जूड़े है। अगर नहीं पीयुंगा तो उनका घर कैसे चलेगा मेरे यार!!!!" (और जोर से ठहाके की आवाज हुई)
- "गज़ब हो! कैसे गलत चीज को भी जस्टीफाई कर रहे हो वाह।।"
(मन में विचार आया- सही कहा है किसी ने कुत्ते का दूम कभी सीधा नहीं हो सकता।)
✍🏻 *पुखराज यादव "पुक्कू"*
महासमुन्द