देख फिर नदी उफान पर है,
और खड़ी शाम ढ़लान पर है।
जाना भी उस पार जरूरी है,
मल्लाह तेरे आने मे क्यों देरी है।
कितनी वेदनाएं है क्या कहूँ??
लगता यहां कोई मजबूरी है।
पता कौन करे? राह जीवन के,
मल्लाह, तेरा आना जरूरी है।
सुबह,दोपहर और शाम हुई है।
रिक्त होने में रात की कुछ देरी है।
ले चल रे !! मल्लाह मुझे उस पार,
अंतिम फैसले की लगी बेरी है।
नादान,मौला फिर श्याना सब हुआ,
फिर से ये चक्र जीने की फेरी है।
ले चल मल्लाह मुझे उस पार तू,
तेरा आना, अब तो बहूत जरूरी है।
*पुखराज यादव"पुक्कू"*
महासमुन्द