Wednesday, May 31, 2023

समाज में महिला सुरक्षा एक बड़ा प्रश्न? / Women safety a big question in the society?



                 (अभिव्यक्ति) 

आज दुनिया भर में 4,000 से अधिक धर्म, विश्वास समूह और सम्प्रदाय मौजूद हैं। शोधकर्ता और शिक्षाविद आम तौर पर दुनिया के धर्मों को पांच प्रमुख समूहों में वर्गीकृत करते हैं: जो क्रमश: ईसाई धर्म, इस्लाम, बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म और यहूदी धर्म हैं।
           इन सभी धर्मों में स्त्री को प्रधान तो माना गया, लेकिन पितृसत्तात्मक समाज के चकाचौंध में उसे घर, रसोई और पर्दे के पीछे रखा गया। कभी स्त्री को सम्मान की धात्री कहा गया, तो कभी किसी पुरुष के अपमान के लिए उसकी स्त्री को तिरस्कृत किया जाता है। सवाल यह है कि आखिर वे खामियां कहां हैं जिन्हें हमें दूर करने की जरूरत है? लिंग-तटस्थ समाज बनाने के लिए किन अंतरालों को भरने की आवश्यकता है जहां महिलाएं बिना किसी हिचकिचाहट के स्वतंत्र रूप से चल सकती हैं, या कोई भी पेशा चुन सकती हैं जो उन्हें उनके लिए उपयुक्त लगता है या कोई भी उन्हें यह कहकर नहीं रोकता है कि वह एक लड़की है और उससे उम्मीद नहीं की जाती है यह काम करने के लिए। समस्या के समाधान के लिए जब हम अतीत या प्राचीन काल में झांकते हैं तो आश्चर्य होता है कि हमने जो देखा वह बिलकुल भिन्न था और आज जो स्थिति है वह भिन्न है। हमारे प्राचीन ग्रंथ हमें सिखाते हैं: स्त्रियों को अपना कल्याण चाहने वाले पिता, भाई, पति और देवर द्वारा आदर और श्रंगार करना चाहिए।
          हमारे प्राचीन भारतीय ग्रंथ हमें महिलाओं का सम्मान और श्रृंगार करने का सुझाव देते हैं, या एक महिला को उसके पिता द्वारा संरक्षित किया जाना चाहिए जब वह एक बच्चा हो, उसके भाई द्वारा मध्य आयु में और उसके पति द्वारा जब वह विवाहित हो, और अंत में उसके बेटे द्वारा जब वह विवाहित हो वह बूढ़ी है। इसका मतलब है कि उन्हें संरक्षित किया जाना चाहिए लेकिन आज हम जो देखते हैं वह पूरी तरह से अलग व्याख्या है जहां पूरे समाज ने इस युक्ति को गलत तरीके से लिया कि वे खुद की रक्षा करने में सक्षम नहीं हैं और समाज ने सोचा कि वे अधीनस्थ या आज्ञाकारी हैं। ऐसा लगता है कि अगर वे ग्रंथों की अलग तरह से व्याख्या कर सकते तो आज हमारा समाज बेहतर हो सकता था। जिस घर में स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता प्रसन्न रहते हैं। लेकिन जहां उनका सम्मान नहीं होता और अपमान होता है, उस घर में किया गया कोई भी कार्य शुभ फल नहीं देता है। यहां पर भी कथनी और करनी में पृथक व्याख्या देखने को मिलती है।
       वहीं वर्तमान दौर में स्त्री को एक नेटिव टार्गेट बना दिया गया है कि, महिलाओं को बरगला कर,  बहलाफुसला कर धर्म-परिवर्तन के लिए तैयार किया जाये। धर्मांतरण की चर्चा न केवल सामाजिक रूप से बल्कि सैद्धांतिक रूप से भी प्रासंगिक है। धर्मांतरण की अवधारणा को परिभाषित करना कठिन पाया गया है। स्वतंत्र इच्छा के एक कार्य के रूप में धर्मांतरण की सामान्य परिभाषा,एक प्रामाणिक अनुभव के रूप में गहन खोज और दैवीय प्रेरणा के बाद एक आंतरिक परिवर्तन के रूप में अंगीकृत किया जा सकता है।, रूपांतरण कई प्रकार के रूपों और अर्थों को ग्रहण करता है, जिसे केवल विशिष्ट संदर्भों और शामिल व्यक्तियों और समूहों के विशिष्ट शक्ति संबंधों में ही समझा जा सकता है। धर्म के प्रति व्यक्ति की स्वतंत्र पसंद एक अवलोकन की तुलना में एक आदर्श, अमूर्त धारणा अधिक है।  यह बताया गया है कि किन मामलों में धर्मांतरण की अवधारणा उपयुक्त है और इसका वास्तव में क्या अर्थ है। उन्होंने दिखाया है कि कैसे व्यक्तिगत धर्मांतरण की कई व्यापक प्रवचनों का हिस्सा बनती हैं। धर्मांतरण का विश्लेषण केवल एक व्यक्तिगत आध्यात्मिक परिवर्तन के बजाय एक जटिल सामाजिक घटना के रूप में किया जाता है। व्यक्तिगत अनुभव और व्यक्तिगत धार्मिक वरीयता की अभिव्यक्ति से परे धर्मांतरण का बहुत व्यापक प्रभाव और अर्थ है। लेकिन जबरन धर्मांतरण कहीं ना कहीं अपराध है। इसकी पुष्टि करते आकड़े भी गवाही देते हैं। जैसे कि कुछ धर्मों की आगामी वर्ष 2050 में आबादी लगभग दोगुनी होना या फिर धर्मांतरण के नाम पर चल रहे प्रलोभन, डराना और धमकाने वाली विचारधाराओं का छद्म युद्ध को प्रदर्शित करता है।
            दूसरी ओर धर्मांतरण को मुद्दे के रूप में राजनीति या लोकतांत्रिक चुनावों में लाकर वैमनस्यता को बढ़ावा देना भी एक प्रकार से डर का महौल खड़ा करना भी है। वहीं स्त्री के सम्मान की रक्षा से लेकर विविध प्रपंचों में सबसे बड़ा मुद्दा यह नहीं दिखता है कि रोज किसी ना किसी महिला पर चाहे घरेलू, सोशल मिडिया या सामाजिक तौर पर हिंसाएं हो रही है। उनको लगाम लगाना आवश्यक है। जाति,धर्म और वर्ग विशेष के ध्रुवीकरण से सामाजिक समरसता का वास्तव में विखंडन होना लाजमी है।


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़