(अभिव्यक्ति)
वो कहते हैं न आवश्यक ही अविष्कार की जननी है। अतित के कुछ पुराने पन्नों में आज के वर्तमान की नींव रखी गई। बात है सन् 1815 में इंडोनेशिया में माउंट तंबोरा ज्वालामुखी के विस्फोट से पूरे पृथ्वी का तापक्रम असंतुलन की स्थिति में था। जिसके कारण ज्वालामुखी के राख से तापक्रम में लगातार गिरावट की स्थिति निर्मित हो गई। उत्तरी गोलार्ध के देशों की फसलें पूरी तरह से बर्बाद हो गईं। लाखों घोड़े और पालतू मवेशी भूख से मर गए। चुकीं मवेशी तात्कालिन समय में मालवाहक का काम करते थे। मवेशियों के मरने से यह अव्यवस्था निर्मित हो गई। यहां पर आवश्यकता की जन्मस्थली निर्मित हुई। इसी आवश्यकता के पूर्ति के लिए कार्ल वॉन ड्रैस ने ल्युफ़मशीन का अविष्कार किया। यह वर्ष 1817 जर्मन नाम की यह मशीन का नामकरण का अर्थ था, एक चलने वाली मशीन, लेकिन बाद में इसे यूरोप के अन्य देशों में लोकप्रिय नामों जैसे वेलोसिपेड, ड्रेसिएन, हॉबी-हॉर्स और डेंडी-हॉर्स से जाना जाने लगा। बाद में इस मशीन को साइकिल की संज्ञा दी गई। अविष्कार तो हो चुका था, अब दौर उसके अद्यतन का था। जिसमें सन् 1818 में डेनिस जानसन कई बदलाव किए और पैदल यात्रा करने वालें लोगों के सामने एक अच्छा मॉडल पेश किया। ज्यादातर मनोरंजन के लिए या सुबह की सैर के लिए उच्च पदों के कुलीन लोगों द्वारा खरीदा गया था। 1820 तक यह दुपहिया वाहन लोगों के बीच चर्चा का विषय बना रहा, लेकिन 40 साल तक इस क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं हुई। 1836 के बाद साइकिल के निर्माण एवं संवर्धन में कई लोगों ने योगदान दिया और व्यावसायिक पैमाने पर साइकिल बनाना शुरू किया। जिसने साइकिल को बहुत लोकप्रिय बना दिया।
सन् 1863 में एक फ्रांसीसी मैकेनिक पियरे लालेमेंट द्वारा आधुनिक साइकिल के संरचना की नीव रखी गई। इस के बाद से साइकिल के लिए लोगों में ध्यानाकर्षण, सीखने और खरीदने की जिज्ञासा को बल मिला। भारत वर्ष में साइकिल अंग्रेजों के साथ आया। भारत में पहले साइकिल की दुकान और साइकिल को एसेम्बल करने वाले के नाम में लक्ष्मणराव किर्लोस्कर याद आता है। उनकी जीवनी के अनुसार,1888ई यानी साइकिल के आधुनिक अविष्कार के 23 वर्षों में भारत में साइकिल का पदार्पण हो गया था। शुरूआत में आयातित साइकिलें रेडी टू यूज संरचना में आती थी, लेकिन उन हिस्सों में जिन्हें स्थानीय रूप से असेंबल करना पड़ता था। इस प्रकार लक्ष्मणराव तुरंत साइकिलों के संयोजन और मरम्मत के काम में लग गए। वच्चा ब्रदर्स नामक एक साइकिल की दुकान उनकी सामग्री का स्रोत थी। जैसे-जैसे साइकिल की मांग बढ़ी, उन्होंने इंग्लैंड में निर्माता के साथ सीधे किर्लोस्कर ब्रदर्स के नाम से मार्केटिंग शुरू कर दी। किर्लोस्कर ब्रदर्स का अब-पवित्र नाम इस प्रकार पेश किया गया था। सन् 1888 में साइकिल विक्रेता के रूप में पहली बार महाराष्ट्र में स्थापित हुआ। वहीं किर्लोस्कर केवल साइकिल विक्रय का काम नहीं करते थे। बल्कि लोगों को साइकिल की ट्रेनिंग भी कुछ मासिक शुल्क के निर्धारण के साथ सिखाते थे।
भारत में साइकिल निर्माण का प्रारंभ 1942 में एक हिन्द साइकिल नाम की कंपनी द्वारा शुरू किया गया था। 12 जूलाई 1952 के साप्ताहिक अख़बार द इकोनॉमी विकली के अनुसार, '31 दिसंबर, 1951 को समाप्त होने वाले वर्ष के लिए 1 एक लाख से अधिक साइकिल निर्माण किये गए।जो कंपनी के जीवन में किसी भी वर्ष में सबसे अधिक थी। पिछले वर्ष की तुलना में बिक्री से लगभग 10 लाख रुपये अधिक का एहसास हुआ।' यानी साइकिल की मांग तेजी से भारत वर्ष में बढ़ने लगी थी। लेकिन तब की स्थिति में भी पुरूष प्रधान समाज महिलाओं को साइकिल चलानें ते दूर की बात छुना भी अपमान के बराबर समझा जाता था।
आजाद भारत में साइकिल चलाना पुरुषों की शान की बात थी, लेकिन लड़कियों और महिलाओं को साइकिल के पहुंच से दूर रखने की मनसा तो थी। इसी संदर्भ में 1992 में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दिन की घटना याद आता है जिसमें तमिलनाडु के पुडुकोट्टई जिले की महिलाओं ने जो किया वो इतिहास बन गया। हैंडल पर झंडियाँ लगाए, घंटियाँ बजाते हुए साइकिल पर सवार 1500 महिलाओं ने जिले के मुख्य मार्ग में तूफ़ान ला दिया। महिलाओं की साइकिल चलाने की इस तैयारी ने यहाँ रहने वालों को हक्का-बक्का दिया। इस सारे मामले पर पुरुषों की क्या राय थी? इसके पक्ष में 'आर. साइकिल्स' के मालिक को तो रहना ही था। इस अकेले डीलर के यहाँ लेडीज़ साइकिल की बिक्री में साल भर के अंदर काफी वृद्धि हुई।
बहरहाल, साइकिल चलाने का यह आंदोलन नारी सशक्तिकरण का द्योतक रहा है। आज आम जन मानस में साइकिल की सवारी, मोटरसाइकिल और स्कूटी की सवारी पर महिलाओं को फर्राटे भरते देखा ही जा सकता है। आज भी लेकिन महिलाओं के वाहनों के चालन को लेकर लोगों में डर की स्थिति है। जहाँ आप ने आप को समानता के श्रेणी में कतारबद्ध करती महिलाएं हवाई जहाज और फाईटर प्लेन भी उड़ा रही है। यह परिवर्तन समय के साथ अब और विस्तृत हो रहा है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़