Friday, May 13, 2022

बचपन छीनने के षड़यंत्र में कामयाबी की ओर स्मार्टफोन : प्राज / Smartphone towards success in conspiracy to snatch childhood


                           (चिंतन

वर्तमान समय में यदि नशे की लत की के विषय में चर्चा करें तो सबसे बड़ा नशा यदि स्मार्टफ़ोन को घोषित करें तो मेरे हिसाब से मिथ्या नहीं है। बच्चों से लेकर बड़ों तक स्मार्टफ़ोन सभी के लिए आकर्षण का विषय है। वर्ष 1876 में एलेग्जेंडर ग्राहम बेल ने टेलीफोन के आविष्कार और गूल्येल्मो मार्कोनी ने 1890 के दशक में वायरलेस टेक्नोलॉजी को सिद्धांतो ने टेलीकम्युनिकेशन के क्षेत्र में क्रांतिकारिक परिवर्तन की शुरुआत कर दी। इन महान वैज्ञानिकों के पीढ़ी को आगे बढ़ाते हुए मार्टिन कूपर ने दुनिया के मोबाइल फोन मोटोरोला डायना-टीएसी का आविष्कार 1973 मे किया था।
                   मार्टिन कूपर कहते हैं, 'किसी भी नई चीज़ को समझने के लिए उसे इस्तेमाल करना आवश्यक है।' नव तकनीक पर आधारित उनकी उपयोगितावादी सिद्धांत का समर्थन प्रत्येक व्यक्ति अवश्य करता है। लेकिन उपयोग पद्धति में स्मार्टफ़ोन के लगातार अपडेट और मनोमस्तिष्क को वशीकरण में करने वाले इंटरनेट से चलने वाले अनुप्रयोगों का यह दौर बहुत कुछ छीनने वाली स्थितियां बना रही है। वाट्सएप में वाइरल हुए एक हास्यास्पद तर्क की ओर मेरा ध्यान जाता है जिसमें स्मार्टफ़ोन के आने से घड़ी, डायरी, कैमरे, रेडियो, टीवी, कम्प्यूटर इत्यादि को खाकर भी स्लिम-ट्रीम रहने वाले स्मार्टफ़ोन को मजाकिया लहजे में कोसते हैं।
          इस हास्य विनोद के तर्क गहराई की तह तलाश करने का प्रयास करें तो वास्तव में स्मार्टफ़ोन के आने के बाद जिंदगी आसान तो हुई है, मगर परेशान ज्यादा प्रतीत होता है। खासकर स्मार्टफ़ोन की मांग आज बच्चों के जीद शुमार है। यह ऐसा जीद है जिसके लिए पालक भी कभी-कभी पूर्ति कर गलती कर बैठते हैं। कुछेक तो यह तर्क भी देते हैं की हम तो कैलकुलेटर भी मैट्रीक पास करने के बाद चलाना सीखे थे, लेकिन हमारा लल्ला तो तीन साल की उम्र में मोबाइल के सारे फंक्शन को जानता है। जितना वह जानता है उतना तो मुझे चलाने नहीं आता है। ये तर्क अक्सर पालक अपने बच्चों के बढ़ते बौद्धिक स्तर के परिचय के रूप में कहने का कोई अवसर नहीं छोड़ते हैं।
               वास्तव में ऐसे सोचने वाले लोग बड़ी भूल कर रहे हैं। मोबाइल के अत्यधिक उपयोग से बच्चों में सबसे ज्यादा मानसिक बीमारियों की समस्या का जन्म होने की संभावना बढ़ जाती है। वे मोबाइल को आंखों के बहुत पास सटाकर देखते हैं तो आंखों पर असर पड़ना तो लाजमी है। उनकी पास और दूर दोनों की दृष्टि कमजोर होने लगती है। सके साथ क्योंकि मोबाइल का ज्यादा प्रयोग करने वाले बच्चे बाहर खेलने कूदने नहीं जाते हैं तो उनमें मोटापा और हाईपरटेंशन जैसी बीमारियां को खुला आमंत्रण स्वतः ही प्रेषित हो जाता है। स्मार्टफ़ोन की डिजिटल गलियों में भटकने वाला बच्चा वास्तविक दुनिया से हटकर इमैजिनेशन की दुनिया में जीने लगता है। वह खेलने-कूदने से इतर बंद कमरे में रहने में अपने आप को सहज समझता है। बच्चे का दूसरे बच्चों और परिवार, रिश्तेदार के लोगों से संपर्क लगभग शून्य की स्थिति में हो जाता है। ये कहिए कि उसकी सोशल स्किल कम हो जाती है। जिसके मद्देनज़र वह अपने आप को सामाजिक ढांचे से भिन्न मानने लगता है। वहीं स्मार्ट गेमिंग के फितूर में आँख, कान, उँगलियाँ, और बौद्धिक क्षमता में प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिलता है। कुछ ऐसे भी उदाहरण है जो स्मार्टफ़ोन एडिक्सन के चलते आर्थिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और अप्राकृतिक अपराधों की ओर बच्चे बहुत आगे बढ़ गए हैं। सारकरण में कहने का प्रयास करें तो तकनीक का उपयोग एवं उसकी प्रासंगिकता के लिए एक निर्धारित नियम एवं शर्त होना आवश्यक है। वर्ना भारी भरकम स्मार्टफ़ोन के डीजिटल संस्करणों के बुलडोजर के नीचें मासुम बचपन को रौंदने से कोई नहीं बचा सकता है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़