Friday, May 13, 2022

ईश्वर के साकार रूप का साक्षात्कार है माँ/ Mother is the realization of God's form


                 
               
माँ जिन्हें हिन्दी में जननी, माता और कुर्दिश में डेयिक, फ्रेंच में मेरे, स्वीडिश में मोर और आंग्ल भाषा में मदर कहते हैं। पृथ्वी पर जीवन के स्त्रोत के रूप हमारी भाषा शब्दिक स्वरूप में परिभाषित करते हुए जग-जननी की संज्ञा दी गई है। भाषा या संस्कृति कोई भी क्यों ना हो? माँ के ममत्व को ईश्वर के इस संसार में विद्यमान होने का प्रतीक माना जाता है। एक शिशु की संरचना संगठन के प्रारंभ से लेकर उसके शरीर के आकार और दुनियाँ को पहली बार देखने के पूर्व कोख़ में वह शिशु माँ में अपना सृजन, आहार और प्राणवायु माँ के श्वासों में भरता है। माँ के भितर गर्भनाल के सहारे वह जीवन के अमर स्वरों को सीखता है। ये बातें केवल शाब्दिक चयन के रूप में नहीं है। बल्कि यह बातें शोध और अनुसंधान के द्वारा तर्कसंगत आपके समक्ष रख रहा हूँ। नवजात शिशुओं के रोने के तरीकों पर शोध करने वाले जर्मन वैज्ञानिक डॉ. वर्मके सार में कहते हैं कि, 'नवजात भाषा सीखने के लिए आतुर रहते हैं और इसके लिए अपनी माँ के स्वर और सुर की नकल करने की कोशिश करते हैं।'
            बदलतें समय के परिवेश में बहुत कुछ बदला। आदिम से सभ्य और आधुनिकता के दौर तक लोग पहले पूर्तिकर्ता फिर, लगनशील और अब व्यावसायिक हो गए हैं। लेकिन इन सभी काल के समय चक्र में माँ की भूमिका का परिवर्तन नहीं हुआ है। आज भी नारी शक्ति या महिला या जो भी संज्ञा देना चाहें स्त्रीलिंगीय जाति को वो सदा समर्पित तन, मन और चिंतन से सृजन के नवांकुरण करती रहीं है। जितने भी सभ्यता के अमर स्वर हुएं हैं उनका सृजन का मार्ग माँ से फलित हुआ है। माँ के डेफिनिशन में संभवतः कोई परिभाषा उन्हें शब्दों की सीमा में बांध दिखलाए यह संभव नहीं है। पूर्व काल से ही माँ का स्थान समाज में उच्च रहा है। लेकिन वर्तमान व्यावसायिक पृष्ठभूमि पर कभी-कभी ममतामयी नारी शक्ति को कमतर आँकने के गलती करने वालों के ये शक्ति जवाब अपने कार्य से नव शिखर के निर्माण से वर्चस्व स्थापित कर देतीं है।
             माँ की ममता और उसके कार्यों के संबंध में तो हम अपने व्याख्या के रूप में बहुत कुछ कह सकते हैं। लेकिन क्या इन सभी व्याख्याओं को हम जीवन में आत्मसात् भी करते हैं? संभवतः अधिकांशतः का जवाब होगा सौ फिसदी हाँ में अवश्य होगा। लेकिन ऐसा नहीं है। इसी संदर्भ में, इकोनॉमी टाइम्स के 2019 में प्रकाशित एक खबर के अनुसार, परोपकारी संगठन हेल्पएज इंडिया के सर्वे में चौकाने वाले आकड़े आए हैं कि अपने बुजुर्गों की देखरेख करनेवाले 35 फीसदी लोगों को उनकी (बुजुर्गों की)सेवा करने में खुशी महसूस नहीं होती। वहीं इसी सर्वे में 29 फीसदी लोग अपने परिवार के वृद्धाश्रम में रखने की इच्छा जाहिर करते हैं।
             संयुक्त से न्यूक्लियर परिवार की ओर आँखों में पट्टी बांधकर दौड़ने वाले युवा शायद यह भूल रहें हैं। वे जिन वृद्ध जनों को घर से बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं। वे उन्ही के कोख़ और कंधों से जीना और चलना सीखें हैं। मातृ को परमशक्ति ईश्वर की संज्ञा देने वाले समाज में यदि वृद्धाश्रमों की स्थापना होने लगे तो समझना आवश्यक है की कहीं ना कहीं हमारी संस्कृति में डोपिंग के छींटे पड़ गए हैं। वर्ना माता को पूजनीय मानने वाले समाज में 728 वृद्धाश्रम ऐसे ही नहीं निर्मित हो जाते। माँ के कर्ज नहीं चुका पाने की सारगर्भित तर्क देने वाले भी माँ के सूख की कल्पना एकांतवास में करने लगे हैं। यह बड़ा परिवर्तन माँ के हृदय में आरी चलाने के समान कष्ट दायक है। वास्तविकता के धरातल पर चलकर माँ के सम्मान के साथ नारी के अधिकारों का संरक्षण करना हमारा दायित्व हो। एक ऐसे समाज की आधारशिला रखें जहाँ नारी का सम्मान और समानता का अधिकार हो। पृष्ठभूमि चाहे सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक या विविध हो। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़