(अभिव्यक्ति)
नारी सशक्तिकरण से लेकर समाज में नारी के स्वरों को मुखर आवाज तक कहने के लिए आमादा पुरूष-प्रधान समाज में आज भी नारी एक स्तर पीछे ही रखी जाती हैं। टीवी विज्ञापनों में नारी को प्रधानता और नारी को मार्केटिंग के लिए अंकन किया जाता है। कहीं ना कहीं स्त्री के कम कपड़ों को भीड़ बढ़ाने का जरिया माना जाता है। तभी तो किसी मैंच के आयोजन में झमाझम नाचती चीयर्स-लीडर की बात हो या फिर नग्नता के नरम बिस्तर पर स्त्री के कलेवरों को उतारने का दृश्य हर कहीं न कहीं स्त्री को मार्केटिंग के लिए आकर्षण की वस्तु बनाकर पेश किया जाता है।
ऐसा नहीं है की विवादों का दौर वस्त्रों को लेकर कोई नया है। पहले भी और आज भी इन्हीं लिबाज़ों को लेकर कई मतभेद हुए है। कपड़ो पर टिप्पणी से याद आया की महिलाओं पर हुए बालात् अपराधों के लिए कपड़ों पर दोषारोपण अवश्य किया जाता है। वहीं पीड़िता के चाल चलन से लेकर रहन-कहन तक सारे समीक्षा के समीकरणों का सामाजिक प्रयोगशाला में परीक्षण और निष्कर्ष अवश्य होता है।
वैसे वर्तमान पोषाक जिसमें साड़ी के ब्लाउज़ बैकलेस और डीपनेक को देखकर लोगों के फिसलने की अनुमान तो अवश्य निकाल लिया जाता है। तो ऐसे विचारों से ग्रसित सज्जनों को यह याद दिलाना चाहुँगा की ब्लाउज़ और पेटीकोट जैसे शब्द विक्टोरिया कालीन युग में भारतीय जुबान पर चढ़े थे। साड़ी के भीतर कमीज़ पहनने का चलन भी उस दौर में जबर्दस्त फ़ैशन में था। जबकि ब्रितानी संस्कृति में इन्हें बहुत पारंपरिक किस्म का लिबास माना जाता है। चाहे क्यों ना ब्लाउज़ से बीच का खालीपन प्रदर्शित हो जाता था। लेकिन इसके बावजूद लंबे समय समय से इसे बेहद शालीन माना जाता रहा है और ये पारंपरिक कहा जाता था। भारत में किसी महिला के लिए अपने शरीर को पूरी तरह से ढकना बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसने भीतर क्या पहन रखा है। ब्रितानियों का असर अलग-अलग किस्म की डिजाइन की बाहों और गले वाले ब्लाउज़ देखते हैं।
अब आप कहेंगे की साहब कहाँ आप कपड़े-लत्ते और नजरियाँ का उल्लेख कर रहे हैं। वर्तमान समय में पड़ोसी मुल्क से इंसानियत को शर्मसार करने वाली एक खबर आई है। जिसमें मृत लड़की के साथ दरिंदगी की सारी हदें पार करते हुए। कुछ लोगों ने मृत शव के साथ बलात्कार किया है। वहीं यह पहला मसला नहीं है बल्की इससे पहले भी ऐसी घटनाएं होने के बारे में स्थानीय मीडिया के द्वारा बताया जा रहा है। यह एक बड़ा और गंभीर प्रश्न है की हम आधुनिकता के इस दौर में निर्ममता की सारी हदें लाँघ कर नैतिकता के पतन स्तर की ओर तो अग्रसर नहीं हो रहे हैं। नारी के कपड़ों या चाल-चलन से बलात्कार नहीं होते अपितु समाज में व्याप्त कुत्सित मानसिकता के लोगों के द्वारा ऐसे अपराध अंजाम दिये जाते हैं।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़