Wednesday, February 16, 2022

सौ मे निन्यानवे बईमान की स्थिति : लेखक प्राज / ninety nine beiman status in a hundred


                              (विचार)

प्रासंगिक तौर पर, एक उदाहरण तो अवश्य देखने को मिलता है। जब कोई कार्मिक अपने ब्यौरोक्रेसी से दूर पदस्थ हो। लगभग अपने दफ्तर के रोडमैप में प्रधान हो। तब एक निश्चित बात तो यह देखने को मिलता है की वह किसी तानाशाह से कम अपने आप को समझने की भूल करता ही नहीं है। उस समय सिर पर केवल पद और दायित्व को निर्वाहन के लिए हित-अहित की सीमा से परेय,इंस्टेंट रिएक्शन देना परम धर्म समझता है। जैसे ब्यौरोक्रेसी के टाप आर्डर ने फरमान जारी कर दिया की, अमुक तिथि को किसी प्रकार की मूवमेंट हैं। कड़ी कार्रवाई चाहिए। कहने का तात्पर्य है कि ऊपर के साहब ने कहा है, यदि मैं टार्गेट पूरा नहीं करता तो निश्चित है की डांट और फटकार की स्थिति होगी। संभव है शारीरिक शिथिलता पर ताने भी मारे जायें। इससे अच्छा है दिये गए, टार्गेट को तत्काल पूरा किया जाना आवश्यक है। इस भावना से ग्रसित व्यक्ति कुछ भी करने पर उतारू हो जाता है।
                मामला तब मसला बन जाता है। जब यही स्थिति वनांचलों में हो। जहाँ सरकारी आदेश से ज्यादा, सरकारी लोगों से लोग डरते हैं। जहाँ थोड़े अधिकारों के रौब, मानों जमीदारी प्रथा की याद दिला दे। बिलकुल डिक्टो, वैसे ही भूमिका का निर्वाहन किया जाता है। आदेश की प्राप्ति के पश्चात तो जैसे टार्गेट पूरे करने के लिए चाहे किसी के जीवन लीला से खेलना ही क्यों ना हो? उससे भी गुजर जाना मुलाजिम को बेहद आसान लगता है। यदि कभी कोई एक्टिविस्ट या समाजसेवी द्वारा इस विषयक कोई बखेड़ा खड़ा भी कर दिया गया। निष्पक्ष जाँच के नाम पर ब्यौरोक्रेसी के कुछ आला अधिकारियों को, कुछ सोशल एक्टिविस्ट को एक दल के जांच के लिए सौंप दिया जाता है। घबराईये तो बिलकुल नही, ऐसे जाँच की निष्पक्षता इस बात के लिए तो कतई नहीं है कि हाथ किसके रंगे है। बल्कि प्रासंगिकता तो यह है की रंगे हाथों को स्वच्छ कैसे साबित किया जावे।
              जाँच के नाम पर उल्ट-पुल्ट के अखाड़े तैयार हो जाते हैं। दो -चार दिन दफ्तरों के चक्कर काटे जाते हैं। थोड़ी मिडिया और सोशलमीडिया में लोग चिल्लाते है। सारे प्रोग्राम का सार यह होता है कि यदि कोई एंगल छुट गया हो। उसे करेक्ट किया जाये। भई बात तो सिस्टम की है, यदि किसी मुलाजिम ने गलती कर दी कहने का तात्पर्य है की सिस्टम ने गलती कर की। फिर तो गजब हो जायेगा ना। उससे अच्छा है सिस्टम को सुधारने के बजाय सिस्टम को उत्कृष्ट बता दिया जाये। बोलें की भाई साहब इससे बेहतर तो क्या ही होगा? निष्पक्षता के नाम पर मलाई बराबर बांटने की प्रथा में पूरी इमानदारी बरती जाती है। कट के हिसाब से उनकी अवस्थिति भी परफेक्शनिस्ट की तरह गढ़ी जाती है। बहरहाल इस बीच कोई ऐसा भी खड़ा होता है। जिससे सिस्टम पूरा डरा होता है। कभी सच्चाई के नाम पर वास्तविकता के धरातल के अंतिम कड़ी तक पहुँच जाते हैं। वे फेरबदल तो निश्चित ही ला देते मगर, सिस्टम सौ में निन्यानवे बेईमान की थेवरी बड़ी पूरानी है। इसके आगे तो बड़े -बड़े सुरमा घुटने टेक जाते हैं। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़