(संघर्ष)
लाल सूरज के विस्तार करते क्षेत्र को जहाँ रेड कॉरिडोर कहा जाता हैं। ये वे पृष्ठभूमि हैं जहाँ नक्सल हिंसा के मसले आये दिन होते रहते हैं। जहाँ आए दिन सैन्य बलों और नक्सलियों के बीच खूनी झड़प होते रहते हैं। नक्सली, जो वनों में अपने अस्थायी ठिकानें बनाते हैं। भोजन एवं अन्य व्यवस्था के लिए निवास स्थल से पास के ग्राम/वन्य ग्राम के लोगों से सहयोग या कहें अपने डर के कारण सहयोग पाते हैं। अब विडम्बना की स्थिति तो बेचारे ग्रामीण लोगों की होती है। गरीबी ने वैसे भी जीना मुहाल कर रखा है। दूसरी ओर उनके लिए क्रांतिकारी की बात करते आए, नक्सल समर्थक यदि उनकी खातिरदारी नहीं हुई तो, कहीं जान से हाथ धोने की स्थिति निर्मित ना हो इस डर से लोग सहयोग करते हैं।
बेचारे वनवासियों की मुश्किलें अभी खत्म कहाँ हुई है। इनके पीछे-पीछे सैन्य बलों के जवान भी, इसने मूवमेंट के पश्चात सुराग तलाशते पहुँच ही जाते हैं। जहाँ फिर एक बार ग्रामीणों को कठघरे में खड़ा होना पड़ता है। जहाँ फिर से, नक्सल और मुख्यधारा के बीच अपनी निष्पक्षता साबित करना ही पड़ता है। लेकिन इससे पूर्व इनके साथ, घरों की तलाशी कुछ ऐसे स्वरूप में ली जाती है की जैसे माओ संगठन के ये भी एक विचारक हों। कहने का तात्पर्य है, दोनो ओर तेज धार के तलवारों के बीच खूद को महफुज रखने की कोशिश करते हैं। जब भी मुख्यधारा बना माओवाद के टकराव या संघर्ष का विषय बना है,तो सबसे ज्यादा ये वनवासी, आदिवासी लोगों को ही प्रताड़ना सहन करना पड़ता है।
वहीं नक्सल संगठनों के लिए इन्ही बेजुबां आदिवासियों, वनवासियों के बच्चे रंगरूटों के रूप में भर्ती के लिए साफ्ट टारगेट होते हैं। जहाँ मनोवैज्ञानिक रूप से उन्हें बरगलाने और मष्तिष्क-धावन कर लाल सूरज की पैरवी के लिए तैयार किया जाता है। वे उनकी स्थिति, सैन्य बलों के सख्त रूख, आर्थिक असमानता के विषयों से लेकर विकास, भ्रष्टाचार सारे मुद्दों को हथियार बनाते देर नही लगता है। जिनसे हमें टकराना है, उन तक केवल एक ही आवाज पहुचती हैं। वह आवाज मांग की नहीं, बंदूक की है। इसी प्रकार से किशोर-किशोरियों की भर्ती धड़ल्ले से की जाती है। जिन कोमल हाथों में कलम दिखने थे। जिन्हे कल चलकर कलाम बनना था। वे अलग ही क्रांति की बात पर अपनों से लड़ने पर आमादा है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़