Wednesday, February 16, 2022

शोषण, विद्रोह, विचारधारा और पुनर्वास : लेखक प्राज / Exploitation, Rebellion, Ideology and Rehabilitation


                           ( तुलनात्मक

महिलाओं को समानता के तराजू में कागजी समानता तो अवश्य दी गई, लेकिन जवाब पुरूषप्रधान समाज में प्रासंगिक होना इतना आसान थोड़ी है। महिला, जो घर की दहलीज पार कर चंद पलों के लिए बाजार जाती है, तो लोगों के पहरेदार निगाहों को जैसे राष्ट्रीय कार्य मिल गया हो, ना चाहते हुए भी घूरने के फिराक में अवश्य रहते हैं। वहीं प्राचीन काल से महिलाओं के लिए दोहरी मानसिकता देखने को मिलता है। एक ओर जहाँ अपने घर की बहन-बहुऔर बेटियों के लिए व्यक्ति मान सम्मान की बात करता है। वहीं घर के बाहर की नारी शक्ति के लिए माल समझने की प्रथा का अभी से नहीं प्राचीन समय से जारी है। चाहे बाजार की रौनक हो, शहरों की भीड़ या फिर फिल्मों के सक्सेज के लिए हिरोइन के तन पर सिकुड़ते तंग कपड़े प्रत्येक स्थल पर महिलाओं का बोध, पुरूष मानसिकता में खजुराहो के शिल्प के समान है।
                 बस की भीड़ हो या फिर मेले-ठेले की धक्का मुक्की हर कहीं महिलाओं की सुन्दरता उनके लिए परेशानी का सबब बनती है। खचाखच भरी बस में भीड़ के बहाने हाथ की ऊँगुलियों से तन नापने वालों की कमी थोड़ी है। इस दूनिया में, बहरहाल जरा सोचिए ऐसे में यदि पुरूष व्यक्तिविशेष हो, या शक्ति सम्पन्न हो, तो महिलाओं की सामत आने वाली है कह सकते हैं। ऐसी ही घटनाओं की शिकार वनांचलों में निवास करने वाली महिलाओं के साथ होता है। जहाँ कुछ दुषित मानसिकता के लोग, थोड़े अधिकारों के दुरूपयोग से कभी नक्सल होने या समर्थन में होने की बात से डरा-चमकाकर महिलाओं का शोषण करते हैं। वर्ष 2013 के 20 नवम्बर की बीबीसी में प्रकाशित खबर इस ओर इशारा करती है कि नक्सलवाद समर्थक एक नारी का गिरफ्तारी के पश्चात शोषण किया गया। क्रोध और बदला लेने की भावना से ग्रसित उसकी बहन कहती है, सरकार के दमन ने उनको हथियार उठाने और माओवादियों के दल में शामिल होने को मजबूर कर दिया। वो निडरता के साथ कहती हैं, 'हम बेवज़ह ही ऐसी ज़िंदगी नहीं जी रहे हैं. मेरे पास क्रांति में शामिल होने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है।'
                 माओवादी, जो नक्सली के नाम से भी जाने जाते हैं, भारत के मध्य और पूर्व में बीते पचास सालों से अपनी गतिविधियां संचालित कर रहे हैं। 
वे ग़रीबों के लिए भूमि और नौकरियों की मांग करते हैं और उनका उद्देश्य भारत की 'अर्द्ध-औपनिवेशिक, अर्द्ध-सामंती व्यवस्था' को सत्ता से बेदख़ल करके साम्यवादी समाज की स्थापना करना है। इस संगठन में भी तो पुरूषों की अवस्थिति है। जहाँ वो महिला सम्मिलित हुई। वैसे माओवादी महिलाओं की भर्ती लड़ने और कॉ़डर के पुरुष सदस्यों पर निगरानी के लिए करते हैं जो गाँव के लोगों का उत्पीड़न कर सकते हैं। लेकिन जो निगरानी के लिए निर्धारित है, उसे जंगल के सन्नाटे में कौन बचाए। कहने का तात्पर्य है की महिलाओं का जीवन सरल तो वहाँ भी नहीं है। रोज के भागदौड़ और सुरक्षा बलों के साथ लुकाछिपी से परेशान होकर महिलाओं का मोह ऐसे संगठन से कम होने लगा है। वे पुनर्वास को अपनाना चाहती हैं, और अपना भी रहीं है। जंगल को पीछे छोड़ सामान्य ज़िंदगी जीवन के लिए कोशिशें करती है। शनैः- शनैः ही सही मगर बदलाव की बयार तो चलने लगी है। बस, नहीं बदली है पुरूषों के दोहरी मानसिकता, जो आज भी महिलाओं को समान मानने को तैयार नहीं दिखते हैं। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़