Wednesday, February 16, 2022

लाल क्रांति के उदय में सहायक परिस्थितियाँ : लेखक प्राज/ Conditions contributing to the rise of the Red Revolution


                            (विश्लेषण


आजादी के बाद 1950 से देखा जाय तो भारतीय किसान अपनें संघर्ष और अधिकारों के लिए केवल हथियार की भाषा समझते थे। उदाहरणतः जिन्होंने जमींदारों के खिलाफ, ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हथियार उठाया था। वहीं आजादी के पूर्व सन् 1922 में चौराचौरी में 22 पुलिस वालों को जलाया गया था, उसमें भी सबसे बड़ी भागीदारी किसानों की थी। उसके बाद ही तो गांधीजी ने असहयोग और अहिंसक आंदोलन की घोषणा की थी। लेकिन किसानों ने तो अपने तरीके से अपने आंदोलन की भाषा समझी थी और उसका इस्तेमाल भी किया था। यानी कृषक इतने यातनाओं से परेशान अपने सब्र की सीमा त्याग चुके रहते हैं। जिनके चलते अंतिम रास्ते के स्वरूप में शस्त्रांदोलन ही विकल्प के रूप में दिखलाई पड़ता है। भारत में माओवाद असल में नक्सलबाड़ी के आंदोलन के साथ पनपा और पूरे देश में फैल गया। राजनीतिक रूप से मार्क्स और लेनिन के रास्ते पर चलने वाली कम्युनिस्ट पार्टी में जब विभेद हुए तो एक धड़ा भाकपा मार्क्सवादी के रूप में सामने आया और एक धड़ा कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में इनसे भी अलग हो कर एक धड़ा सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर चलते हुये पड़ोसी देश चीन के माओवादी सिद्धांत में चलने लगा। भारत में माओवादी सिद्धांत के तहत पहली बार हथियारबंद आंदोलन चलाने वाले चारु मजूमदार के बेटे अभिजित मजूमदार के अनुसार चारू मजूमदार जब 70 के दशक में सशस्त्र संग्राम की बात कर रहे थे, तो उनके पास एक पूरी विरासत थी।
                 भारतवर्ष जो आजादी के साथ-साथ नव लोकतंत्रवादी विचारधारा के प्रवाह में रहीं। जहाँ लोग ऊच-नीच, जाति-धर्म, विभिन्न क्षेत्रों में असमानता और हीनता का बोध कर रहे थे। जहाँ एक ओर सवर्ण और दलित का मुद्दा गरमाया था। इसी बीच में एक बड़ा कारक था आर्थिक स्थितियों में विविधता होना। उस समय बड़ी-बड़ी योजनाओं का क्रियान्वयन किया गया। लोग माइग्रेट भी हुए। अतीत में बड़े -बड़े बांधों का निर्माण से लेकर पुनर्वास या पूनर्निर्माण की कई योजनाओं का संचालन तो हुआ, लेकिन सफलता के नाम पर राजनितिक एवं आला अधिकारियों को ही लाभ मिला। यानी कह सकते हैं कि भ्रष्टाचार के चपेट में यह योजनाएं सफल नहीं रही, इससे जनता का रोष बढ़ता ही चला गया । इसी लक्षित रोष के रूप में माओवादी संगठन का जन्म हुआ। इस संगठन के उठ खड़े होने के बाद मुख्य रूप से कहा गया कि  कई योजनाओं एवं विकास की परियोजनाओं का हम विरोध करेंगे तथा विस्थापितों का साथ देंगे। यदि ऐसा करते हैं तो निश्चित रूप से एक राज्य के रूप में हमारा देश नैतिक अधिकार खो बैठेगा और उनके प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि होना स्वाभाविक है। तीस बरस के निर्धनता उन्मूलन के कार्यक्रम में जहाँ गरिबों की स्थिति में सुधार लगभग औसत रहा वहीं भ्रष्ट अफसरों और राजनीति अमलों में अमीरी बढ़ती रही है। इसी दौर में गरीब और अमीर के बीच एक बड़ी रेखा खिच गई। जहाँ से निम्न स्तर पर जीवन यापन करने वालों के लिए सहयोग और आर्थिक परिवर्तनकर्ता के विकल्प के रूप में माओवाद अग्र और उग्र होते गया।
             भूमि सुधार कानून जो 1949 - 1974 तक एक श्रृंखला के रूप में निकले थे, विनोबा भावे का भूदान आंदोलन भी हुआ। लेकिन आज भी देश में भूमि का न्यायपूर्ण वितरण भूमिहीनों तथा छोटे किसानों के बीच न्यायपूर्ण तरीक से नहीं हुआ है। पुराने जमींदारों ने कई चालों के जरिये अपनी जमीन बचा ली और वक्त के साथ साथ जमींदारों की नई नस्ल सामने आ गयी जो बेनामी जमीन रखती है और गरीब उतना ही लाचार है, जितना पहले था। 
           अनुसूचित जनजाति और जाति के लोग भारत में लंबे समय तक हाशिये पे धकेले हुए रहे हैं। वैसे मानव भले ही स्वभाव से सामाजिक प्राणी रहा हो जो हिंसा नहीं करता लेकिन जब एक बड़े वर्ग को समाज किसी कारण से हाशिये पे धकेल देता हैं और पीढी दर पीढी उनका दमन चलता रहता हैं। भारत में एक बड़ी आबादी जनजातीय समुदाय की हैं लेकिन इसे मुख्यधारा में शामिल होने का अवसर आज तक नहीं मिला हैं आज भी सबसे धनी संसाधनों वाली धरती झारखंड तथा उडीसा के जनजातीय समुदाय के लोग निर्धनता और एकाकीपन के पाश में बंधे हुए हैं।


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़