Wednesday, February 16, 2022

ताकाझाकी परम्परा के अनाम प्रतिभागी : लेखक प्राज / Anonymous participants of the Takazaki Tradition


                           (व्यंग्य)

वैसे तो ताक झाक परम्परा का प्राथम्यता नगरीकरण के बसाहटों के दीवारों से हुआ। जहाँ पड़ोसी नामक प्राणी पाया जाता है, वैसे तो पड़ोसियों की संज्ञा सुख-दुख के साथी के रूप में किया जाता है। कहने तात्पर्य यह बिलकुल नहीं है कि उनके घर होने से दुख और घर नहीं होने से सुख प्राप्त होता है। लेकिन आप इस क्षण को सुकून के पल कहकर अपने आप को संतावना दे सकते हैं। पड़ोसी जिसका एक कान सदैव दीवारों से टिका रहता है। जो आपके प्रत्येक दिनचर्या का अच्छा आब्जर्वर होता है। जो आपकी महिमा, लीलाओं का महिमामंडन चार के बीच में बड़े लाग लपेट से करने के दायित्व का निर्वाहन करते हैं। सर न्यूटन के गति संबंधित तृतीय नियम कहता है प्रत्येक क्रिया के बराबर विपरीत प्रतिक्रिया होती है। जालिम बात यह भी है की यह निश्चित भी है। यानी यदि पड़ोसी ताकाझाकी परम्परा का निर्वाह करते है, तो आपका भी फर्ज बनता है। बराबर मात्रा में ताकाझाकी किया जा सकता है।
         बहरहाल, इस परम्परा का अद्यतन होना भी आवश्यक है क्योंकि आधुनिकता के दौर में ताक-झाक के कई संसाधन केवल दीवरों तक सीमित नहीं रह गया है। अब तो सोशलमीडिया नामक नव स्थल पर वर्चुअल दीवार के पार भी इस परंपरा का डीजिटल संस्करण उपलब्ध हैं।
           संसाधन नए हैं और अपग्रेड भी, तो इसके कुछ चार्ज तो देने ही पड़ेंगे। ऐसे में वो प्लेटफार्म और डाटा हैकर्स की टोली आपके लिए स्वयं सेवकों के रूप में सदैव तत्पर रहती है। जो सस्ते से सस्ते दाम पर बड़े किफायती चारीचुगली के लिए मसाला परोस देते हैं। चाहे वह बात आपके पड़ोसी के मूड की हो, लोकेशन की हो, आने वाले इलेक्शन के प्रिप्रेशन की हो। सबकुछ एक झटके में कायापलट कर देने हिमाकत के साथ, ये सुविधा सिर्फ पेय सर्विसेज पर उपलब्ध होती है।
             डरने की बात नहीं है। बेझिझक इस अवसर का लाभ लिजीए। क्योंकि जो आलाकमान हैं वो भी इस सर्विस के पुराने कस्टमर हैं। आप तो सिर्फ देखा-देखी पर ही खुश हैं। जनाब वो तो बड़े लोग है सबके मूड की ताकाझाकी पर वे आमादा हैं।

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़