जब सामाजिकता बन रोड़ा जाता है।
जब न्यून को निम्न और निम्नतर कर,
उपहास के तवें में तलने छोड़ा जाता है।
जब बेशर्मी के सारी सीमाएं लांघकर,
आबरू,वहशियत से निचोड़ा जाता है।
जब विष के प्याले में भरकर गरीबी,
दीन-हीन के भाग में कुड़े-सा जाता है।
जब हक़ की बात पर, ठेंगा दिखलाए,
अधिकार मांगें तो,भ्रष्ट चिड़चिड़ा जाता है।
जब कागजी समंदर पर विवर्तन बनकर,
योजनाओं का लोप भ्रष्टाचार पर फोड़ा जाता है।
तब सवाल सिस्टम के गाल पे तमाचे से,
और हकिक़त रूबरू हो ददोड़ा जाता है।
तब मन के संताप पर अटल-अमिट भाव निखर,कर
मनःपटलपर एक आवृत्ति फेरी,घेरी जाती है।
और फिर तब मन की पीड़ा...हृदय से होकर,
कागज पर उतरते ही कविता होती जाती है।
कागज पर उतरते ही कविता होती जाती है।
कागज पर उतरते ही कविता होती जाती है।
एस. प्राज